प्राप्त नहीं किया है। वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करना जगतमें बहुत दुर्लभ है। जीव अनादि कालसे बाह्य क्रियामें और बाहरमें अटका है। परन्तु अंतरमें सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? भवका अभाव कैसे हो? यह उसे मालूम नहीं है। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। त्रिकाली स्वभाव अनादिअनन्त है-ज्ञायक स्वभाव। ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है, परन्तु सम्यग्दर्शन जब प्राप्त होता है, तभी भवका अभाव होता है।
सम्यग्दर्शन है उसमें ज्ञायक स्वभावका आश्रय होता है, द्रव्य पर दृष्टि जाती है और सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। इसलिये सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। सर्वज्ञ स्वभाव। भगवान धर्ममें निमित्त बनते हैं। परन्तु अन्दरका उपादान स्वभाव तो अपना है। स्वयं प्राप्त करे तो हो सके ऐसा है। इसलिये सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है। बाहरका निमित्त है वह मूल निमित्त नहीं कहलाता। मूल कारण तो सम्यग्दर्शन है। धर्म उसे कहते हैं। सम्यग्दर्शन अनादि कालसे प्राप्त नहीं किया है। और वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके लिये ज्ञायक स्वभावका आश्रय है। ज्ञायक स्वभावका आश्रय लिया और सम्यग्दर्शन प्राप्त हो, फिर त्रिकाली स्वभावके आश्रयसे चारित्र भी उसके आश्रयसे प्रगट होता है। चारित्र भी धर्म है।
दंसण मूलो धम्मो और चारित्र खलू धम्मो। चारित्र धर्म है और सम्यग्दर्शन भी धर्म है। दोनों धर्म हैं। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। इसलिये सम्यग्दर्शन ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है। परन्तु वह सम्यग्दर्शन आत्माका आश्रय ले तो प्राप्त होता है। "जे शुद्ध जाणे आत्मने ते शुद्ध आत्म ज मेळवे।' आत्माको शुद्ध जाने। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो शुद्ध स्वभाव आत्मा हूँ। उसमें गुणभेद, पर्यायभेद सबको गौण करके, एक चैतन्य पर दृष्टि रखे तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। चैतन्य स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करके, ज्ञायक स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करके पर-ओरके भेदभाव, विभावभाव, सब परसे दृष्टि उठाकर एक चैतन्य पर दृष्टि रखे और भेदज्ञानका अभ्यास करे। बारंबार-बारंबार। उसमें उपयोगको स्थिर करे तो उसमें स्वानुभूति होती है। वही धर्मका मूल है।
सम्यग्दर्शन ही धर्म है और वही धर्मका मूल है। चारित्र भी धर्म है। अभी सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ, परन्तु चारित्र प्राप्त नहीं होता तबतक पूरा धर्म प्राप्त नहीं हुआ है। अभी कमी है। इसलिये चारित्र भी धर्म है। स्वानुभूति प्रगट होते-होते, आगे बढने पर स्वरूपकी लीनता बढती जाती है, उसमें चारित्र प्रगट होता है। बाहरके शुभभाव पंच महाव्रत, अणुव्रत शुभभाव है, लेकिन उसके साथ स्वरूपमें लीनता बढती जाय वह चारित्र है। वह चारित्र भी धर्म है। धर्म तो ऐसे प्रगट होता है। बाहरसे प्रगट नहीं होता। आत्माके आश्रयसे प्रगट होता है। इसलिये वही प्रगट करने जैसा है। सुखका धाम जो आत्मा, शांतिका धाम जो आत्मा, ज्ञायकका आश्रय करनेसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और वही जगतमें सर्वोत्कृष्ट है।