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मुमुक्षुः- वास्तविक मूल तो त्रिकाली स्वभाव लगता है। बाकी सब तो उपचारिक लगता है।
समाधानः- त्रिकाली स्वभाव सम्यग्दर्शनका आश्रय है। अनादि कालसे त्रिकाली स्वभाव है, परन्तु यदि उसे वह ग्रहण नहीं करता है तो अनन्त काल निकल जाता है। ग्रहण उसे करना है-त्रिकाली स्वभावको। त्रिकाल स्वभावको जाने। अनादिअनन्त मैं शाश्वत हूँ, ऐसा जाने। उसमें अनन्त गुण हैं, सब ज्ञानमें जाने। दृष्टि एक चैतन्य पर रखे। त्रिकाली स्वभाव.. सम्यग्दर्शनका आश्रय त्रिकाली स्वभाव है। इसलिये ग्रहण उसे करना है। तो ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। त्रिकाली स्वभावको ग्रहण करे तो। लेकिन धर्म तो सम्यग्दर्शनको कहनेमें आता है।
धर्म उसे कहनेमें आता है, अनादिअनन्त त्रिकाली स्वभावको भी (धर्म कहनेमें आता है), परन्तु वास्तवमें जो प्रगट होता है उसीको धर्म कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन ही धर्म है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन रत्नत्रय प्रगट हो, तब मोक्षमार्ग प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- तो चारित्र खलू धम्मो, चारित्रको भी खलू शब्द लगाया।
समाधानः- चारित्र है वह धर्म है, वह स्वरूपमें लीनता बढती है इसलिये। सम्यग्दर्शनको भी धर्म कहनेमें आता है। सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है, मूल वह है। और चारित्र धर्म है। वह आत्माका स्वभाव है। चारित्र, लीनता करनी वह चारित्र धर्म है। भले निश्चयसे चारित्र (धर्म है), परन्तु उसका मूल तो सम्यग्दर्शन है। चारित्रका मूल सम्यग्दर्शन है। चारित्रका मूल यानी यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो चारित्र प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- इस चारमेंसे बात यहाँ आयी कि धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। दूसरे सब दूसरी-दूसरी अपेक्षासे।
समाधानः- हाँ, धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। अनादि कालसे जीवने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। धर्मका मूल सम्यग्दर्शन है। बाकी बाहरका बहुत किया, शुभभाव किये, सब किया, लेकिन वह धर्मका मूल नहीं है। पुण्य बँधता है। बाकी सम्यग्दर्शन शुद्धात्माको पहचानकर उसमें लीनता प्राप्त करे, स्वानुभूति प्राप्त करे वही धर्मका मूल है। धर्म वही है।
चारित्रको भी धर्म कहनेमें आता है। चारित्र धर्म है, धर्म है वह साम्य है। सम्यग्दर्शनका फल चारित्र आता है। स्वानुभूतिका फल है। फिर लीनता बढती है। सर्वज्ञ स्वभाव कहा न? दूसरा उसका क्या निमित्त कहा?
मुमुक्षुः- हाँजी, सम्यग्दर्शन, चारित्र, सर्वज्ञदेव और त्रिकाली स्वभाव।
समाधानः- अनादि कालसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिये प्रथम जब