है, गुरुका आशय समझकरे गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, उस मार्ग पर स्वयं जाय तो उसमें दिक्कत नहीं है।
गुरुका आश्रय करे। गुरुका आश्रय किया कब कहनेमें आये? कि उनका आशय ग्रहण करके जो उन्होंने कहा है, उस अनुसार स्वयं करे तो पहले सच्चा ज्ञान होता है, फिर सच्चा ध्यान होता है। पहले जो बिना ज्ञानके ध्यान होता है, तो कहाँ खडा रहेगा? क्योंकि ध्यानकी एकाग्रता किसके आश्रयसे करेगा? जो अस्तित्व आत्माका है, उस आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिना कहाँ स्थिर खडा रहेगा? कहाँ वह स्थिरता करेगा?
ऐसे तो बहुत लोग करते हैं। कोई-कोई मन्त्रोंमें विकल्प कम करे, ऐसा सब करते हैं। विकल्प कम हो जाय इसलिये उसे ऐसा लगता है कि मानो ध्यान हो गया। मन्द विकल्पको पकड नहीं सकता है। कोई प्रकाश दिखे, कुछ दिखे तो मानो आत्मा मिल गया, ऐसा मान लेते हैं। ऐसी कल्पना हो जाती है। आत्माको पहचाने बिना, आत्माका आश्रय लिये बिना (ध्यान होता नहीं)।
गुरुदेवने जो मार्ग कहा है, उस मार्गको ग्रहण करके गुरुदेवके आश्रयसे ध्यान करे, उसमें यथार्थ करे तो दिक्कत नहीं है। आशय ग्रहण करके (करे)। ध्यान होता है। सच्चा ज्ञान (पहले) होता है। मैं यह ज्ञायक ही हूँ, ऐसी श्रद्धा करे, उसका ज्ञान करे, भेदज्ञान करे कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, यह सब शुभाशुभ भाव आकुलतारूप है, उससे मैं भिन्न हूँ। ऐसे बराबर ज्ञायकको ग्रहण करके उसमें एकाग्रता करे।
ध्यान अर्थात एकाग्रता। ऐसी एकाग्रता करे तो यथार्थ होता है। बाकी तो अनेक बार "यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लियो'। मुनि हुआ, वनवासमें रहा, मुख मौन रहा, आसन-पद्मानस लगाकर ध्यान किया। तो भी मार्ग नहीं प्राप्त होता है। आत्माको ग्रहण किये बिना, ज्ञायकको ग्रहण किये बिना ध्यान नहीं हो सकता है। परन्तु गुरुका आश्रय यथार्थ करे तो वह मार्ग मिलता है। गुरुने जो कहा है, उसी अनुसार करे तो मार्ग प्राप्त हुए बिना रहता नहीं। तो सच्चा ध्यान होता है।
ध्यान होता है, मार्गमें एकाग्रता होती है। ज्ञायकको ग्रहण करे, श्रद्धाके बलपूर्वक आत्मामें एकाग्रता हो, ऐसी ध्यानकी दशा हो तो विकल्प टूटकर आत्माकी स्वानुभूति हो, वह मार्ग है। परन्तु आत्माको ग्रहण करके हो तो यथार्थ होता है। बाकी मुनिओंको तो ध्यानकी दशा होती है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद सहज ध्यानकी दशा होती है। ऐसी ध्यानकी दशा होती है कि अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें निर्विकल्प दशामें चले जाते हैं। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। ऐसी सहज ध्यानकी दशा, ऐसी एकाग्रताकी परिणति मुनिओंको सहज