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हूँ। मेरेमें अनन्त गुण हैं। अन्दर पहचानकर। मेरेमें पर्याय (है), मैं पलटनेके स्वभाववाला हूँ। आत्माको पहचाने तो ध्यान होता है। आत्माके अस्तित्वको पहचाने बिना कहाँ खडा रहेगा? कहाँ टिकेगा? उसकी एकाग्रता कहाँ होगी? ध्यानके लिये एकाग्रता (होनी चाहिये)। उसका लक्षण पहचानकर उसमें स्थिर रहे, तो ध्यान होता है।
मुमुक्षुः- ध्यानमें ही शुद्धात्माको पकड सकता है?
समाधानः- स्वयं विचार करे। ध्यान अर्थात एकाग्रता। विचार करे तो पकड सकता है। विचार किये बिना नहीं पकड सकता। अपना लक्षण पहचाननेका प्रयत्न (करना चाहिये)। एक आदमीको पहचानना हो तो उसका लक्षण क्या है? वह आदमी कैसे पहचाना जाय? गुरुको पहचानना हो तो गुरुके लक्षणसे पहचाने। लक्षणको पहचाने बिना ध्यानसे नहीं पहचाना जाता। समझे बिना ऐसे ही ध्यान करे तो ऐसे नहीं पहचाना जाता।
मुमुक्षुः- तो पहले स्वाध्याय करना चाहिये या ध्यान करना चाहिये?
समाधानः- पहले स्वाध्याय करके सच्ची समझ करनी चाहिये। विचार करना चाहिये। तत्त्वका विचार करे फिर ध्यान होता है। समझे बिना ध्यान नहीं होता।
मुमुक्षुः- कौनसा स्टेज आये कि जब ध्यानका स्टेज शुरू हो?
समाधानः- आत्माको पहचाने तो ध्यानका स्टेज आये। मैं यह ज्ञायक जाननेवाला ही हूँ, मैं आत्मा ही हूँ, ऐसा उसे बराबर नक्की हो तो ध्यानका स्टेज आता है।
मुमुक्षुः- तब तक स्वाध्याय करना।
समाधानः- स्वाध्याय करना, विचार करना, श्रद्धा करनी। सच्ची श्रद्धा नहीं हो तो सच्चा ध्यान नहीं होता। श्रद्धा बराबर करनी। बिना श्रद्धाके डगमगाहट होती है। सच्चा ध्यान नहीं होता।
मुमुक्षुः- श्रद्धा होनेके बाद अन्दर फिक्स नहीं रहता, बाहरमके विचार आ जाते हैं।
समाधानः- लेकिन सच्चा ध्यान हो तो उसकी रुचि लगे, रस लगे तो ध्यान होता है। रुचि और रस बिना (नहीं होता)। नक्की किया, श्रद्धा की तो भी उसका रस, रुचि न हो तो भी ध्यान नहीं होता।
मुमुक्षुः- अपने मनमें इच्छा नहीं होने पर भी भूल हो जाती है। अपना मन नहीं हो, फिर भी हो जाती हो..
समाधानः- वह अपनी मन्दता है। इच्छा नहीं है, उसकी रुचि नहीं है लेकिन अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। अनादिका अभ्यास है उसमें जुड जाता है।
मुमुक्षुः- वह पाप है?