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समाधानः- पापके भाव करे तो पापका, पुण्यके करे तो पुण्यका। जैसे भाव हो। उसमेंसे छूटनेका धीरे-धीरे प्रयत्न करना, उसका विचार करना, अन्दर जिज्ञासा करना। धीरे-धीरे बारंबार बदलनेका प्रयत्न करे। तो अनादिसे जो चल रहा है, अनादिके राग- द्वेष (अटके)।
मुमुक्षुः- नहीं होनेका कारण एक पुरुषार्थकी ही कमी।
समाधानः- आत्मार्थीको यही लेना है कि पुरुषार्थकी कमी है। सच्चा ज्ञान नहीं है, पुरुषार्थ नहीं है। ज्ञान बिना-समझ बिनाका सब ऐसा ही है, पुरुषार्थ बिनाका ऐसा ही है।
मुमुक्षुः- स्वाध्याय आदि सब करते हैं, फिर भी क्रोध भी उतना ही आता है।
समाधानः- स्वाध्याय करे इसलिये क्रोध नहीं आये, ऐसा नहीं है। स्वाध्याय करनेवाला आत्माकी रुचि, जिज्ञासा बढाये तो उसका क्रोध मन्द पडे। स्वाध्याय करे इसलिये क्रोध छूट जाय ऐसा नहीं है। मात्र ज्ञान करे तो क्रोध छूट जाय, ऐसा नहीं है। ज्ञान करके अन्दरसे स्वयं पुरुषार्थ करके अपनी ओर मुडना चाहिये, तो होता है। ज्ञान करनेवालेको भी क्रोध आता है। अन्दर शुष्क हो और हृदय भीगा हुआ न हो तो क्रोध आता है। मात्र पढ ले और अन्दर कुछ नहीं हो, ऐसा बनता है। पढता ही रहे और अन्दर कुछ उतारे नहीं तो क्रोध आता है।
समाधानः- तो .. समाधानः- ज्यादा जानना, ज्यादा पढना चाहिये ऐसा नहीं है। प्रयोजभूत आत्माको जाने तो होता है। आत्माको बराबर पहचानना चाहिये। द्रव्य-गुण-पर्यायको कुछ तो ज्ञान होना चाहिये। ज्यादा स्वाध्याय करे तो होता है, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- बहुत बार ऐसा लगता है, सब करनेके बावजूद हाथमें नहीं आता है।
समाधानः- अपनी कमी है। सब नहीं किया है। थोडेमें ज्यादा मान लिया है।
मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवश्रीकी ९८ वीं जन्म जयंति महोत्सवकी जय हो। माताजी! ... सम्यग्दर्शन टिकनेमें, वृद्धि होनेमें तथा जीवको निरंतर साक्षीभावमें ...मुख्यपने काम करता है कि जीवकी अनन्त शक्ति... काम करती है?
समाधानः- जीवने जिस ज्ञायकभावको ग्रहण किया है, उस ज्ञायकभावका स्वरूप और कैसे ज्ञायकदशा टिके और कैसे श्रद्धा हो, सम्यग्दर्शन कैसे टिके, मुनिदशा कैसे आये, यह सब स्वरूप गुरुदेवने स्पष्ट करके बहुत समझाया है। गुरुदेवका तो परम- परम उपकार है। गुरुदेवने तो इतना स्पष्ट किया है कि कुछ शंका रहे ऐसा नहीं है।
श्रद्धा टिकनेमें ज्ञायककी परिणति काम करती है। ज्ञायककी परिणति, ज्ञायककी जो श्रद्धा हुयी कि मैं यह ज्ञायक हूँ, इसके सिवा जो भाव है, वह मेरा स्वरूप नहीं