४१८ ठीक है, शरीर जड और मैं भिन्न जाननेवाला हूँ। परन्तु अन्दर विभावोंसे भिन्न पडे तो उसने वास्तवमें भिन्न जाना है, नहीं तो भिन्न नहीं जाना है।
गुरुदेवने तो कितना उपदेश दिया है। चारों ओरसे स्पष्ट कर-करके समझाया है। उसमें कुछ बाकी नहीं रखा है। गुरुदेवने कुछ बाकी नहीं रखा है। शास्त्रमें आता है न कि, मेरे गुरुने जो उपदेशकी जमावट की है, उस उपदेशकी जमावटके आगे यह तीन लोकका, पृथ्वीका राज्य भी मुझे प्रिय नहीं है, यह तीन लोकका राज्य भी मुझे प्रिय नहीं है। सब तुच्छ है। ऐसे गुरुदेवने इस भरतक्षेत्रमें जन्म लेकर जो उपकार किया है, ४५-४५ वर्ष तक जो उपदेश बरसाया है, उस उपदेशकी जमावट स्वयं अन्दर करे। गुरुदेवने तो उपदेशका धोध बरसाया है। उस उपदेशके आगे सब तुच्छ है। यह पूरा जगत तुच्छ है। सब तुच्छ है।
एक ज्ञायक आत्माको पहचानो, वही उपदेश गुरुदेवने दिया है। इस पृथ्वीका राज्य, आचार्यदेव कहते हैं, तीन लोकका राज्य भी प्रिय नहीं है। उसके आगे बाहरके विभाव, सब तुच्छ है। लोगोंमें जाहिर होना, किसी भी प्रकारका कार्य, सब तुच्छ है। मेरे गुरुने जो उपदेश दिया, उसके आगे सब तुच्छ है। अन्दरमें गुरुदेवका उपदेश ग्रहण करे तो जो उन्होंने कहा, उसे पहचाने तो उसमें सम्यग्दर्शन (होकर) भवका अभाव हो और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो।
मुमुक्षुः- ... टिकता है तो कैसे?
समाधानः- परिणमता है, स्वयं अपना स्वभाव टिकाकर परिणमता है। स्वभाव टिकता रहता है, परिणमन होता है।
मुमुक्षुः- अर्थात पूरा द्रव्य तो परिणमता है।
समाधानः- हाँ, पूरा द्रव्य परिणमता है। स्वभाव टिककर परिणमता है। दो भाग नहीं हो जाते कि आधा भाग परिणमता है और आधा भाग नहीं परिणमता है, ऐसा नहीं है। परिणमता है पूरा और स्वभावरूप सब रहता है। अपना स्वभाव टिककर परिणमता है। पूरा बदलकर फेरफार नहीं हो जाता। पूरा टिकता है और परिणमता भी है। टिकता भी है और परिणमता भी है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका विषयभूत ऐसा जो त्रिकाल पंचमभाव सदा एकरूप रहता है। तो वह दृष्टि अपेक्षित है या परमार्थसे ऐसा है? पंचमभाव दृष्टि अपेक्षितमें लें...
समाधानः- पंचमभाव पूरा अनादिअनन्त है। वह दृष्टिकी अपेक्षासे नहीं, परन्तु वस्तु स्वभावसे वह एकरूप ही रहता है, पारिणामिकभाव तो। परन्तु दृष्टिके विषयमें वह पारिणामिकभाव आता है। अनादिअनन्त है, वह वस्तुस्वरूप है। अपेक्षित यानी पारिणामिकभाव अपेक्षित है ऐसा नहीं, पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। दृष्टि उसे पहचान