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जाय कि नहीं?
समाधानः- गुरुदेवका उपदेश सुने। गुरुदेव सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं, उसे समझना चाहिये। गुरुदेव मात्र, शरीरसे भिन्न एक ज्ञायक जाननेवाला, उतनेमें सम्यग्दर्शन नहीं कहते थे। गुरुदेव सम्यग्दर्शनका स्वरूप कोई अपूर्व कहते थे। एक शरीरसे भिन्न आत्माको जाना इसलिये उसमें सम्यग्दर्शन आता नहीं। थोडा करके आगे नहीं बढता तो थोडेमें बहुत मान ले तो उसमें कार्यसिद्धि नहीं होती। उसमें स्वयंको सुख उत्पन्न नहीं होता। हो सके तो (अच्छा ही है), नहीं हो सके तो श्रद्धा तो बराबर करना। जो गुरुदेवने कहा है कि सम्यग्दर्शन अंतरमें कोई अलग है और कोई अपूर्व है। शुभाशुभ भावोंसे भिन्न आत्मा है, उसे तू पहचान। उसमें जो स्वानुभूति होती है, उस पार मन-वचन-कायासे भिन्न आत्मा, विभाव भी उसका स्वभाव नहीं है, उससे भी भिन्न अन्दर जान। तो सम्यग्दर्शन अन्दर स्वानुभूति हो तो (होता है)। ऐसा गुरुदेवने कहा है।
तुझसे हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना, शास्त्रमें आता है। न हो सके तो श्रद्धा तो बराबर करना। तुझसे आगे नहीं बढा जाय, तो गुरुदेवने जो सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहा है, उसकी श्रद्धा तू बराबर करना। शरीरसे भिन्न जाना। शरीर तो जड है और आत्मा जाननेवाला है। इसलिये आत्माको जाननेके लिये, यह जाननेवाला मैं हूँ, यह शरीर कुछ जानता नहीं। इसलिये मैं शरीरसे भिन्न जाननेवाला हूँ। परन्तु अन्दरमें जो विकल्पकी जालके साथ एकत्व हो रहा है, विकल्पका-राग-द्वेषका स्वाद कलुषित आ रहा है। वह स्वाद भिन्न है। आत्मा जाननेवालाका स्वाद भिन्न है और यह स्वाद भिन्न है। विकल्पसे भिन्न स्वादभेद करता नहीं। तो उसे अभी भेदज्ञान हुआ नहीं है।
कालीजीरी और शक्कर दोनों मिश्र हो गये हो, शक्करका स्वाद और कालीजीरीका स्वाद, दोको अलग नहीं करता है तो अन्दर भेदज्ञान नहीं हो सकता है। दूध एक बर्तनमें हो तो बर्तनसे भिन्न दूध है। बर्तन बर्तन है। लेकिन दूध और पानी मिश्र है, वह दूध और पानीको भिन्न नहीं करता है तो वह वास्तविकरूपसे दूधका स्वरूप कैसा है, उसे जानता नहीं।
स्वादभेद अन्दर है, उसे भिन्न करे तो ही उसने आत्माको जाना कहनेमें आये और तो ही भेदज्ञान किया कहनेमें आता है। तो ही उसे सम्यग्दर्शन होता है। दोनों- शुभ और अशुभ, शुभभाव बीचमें आये, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शास्त्र अभ्यास बीचमें आता है, जो प्रयोजनभूत तत्त्वको जाननेका प्रयास, ज्यादा बहुत जाने एसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत जाने। वह सब बीचमें आये, परन्तु दोनों भावोंसे स्वयं भिन्न है, शुभाशुभ भाव दोनों कलुषित आकुलतारूप है, मैं उससे भिन्न ज्ञायक हूँ, ऐसा भेदज्ञान करे तो ही उसने सच्चा जाना है। शरीरमात्रसे भिन्न जाने तो उसने भिन्न नहीं जाना है। वह