४१६ अमुक निर्मलताकी श्रद्धा हुयी, परन्तु निर्मलताकी परिणति जो पूर्णरूपसे होनी चाहिये वह नहीं हुयी। उसके लिये क्रम पडता है। वह स्वरूपमें लीनता करते-करते वह आगे जाता है। आगे जाता है और उसकी भूमिका बढती जाय, चौथा, पाँचवा, छठ्ठा-सातवाँ अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें झुलता है, उसमें चारित्रका क्रम है। श्रद्धा-ज्ञानमें क्रम नहीं है। दोनों साथमें हैं।
उसे व्यवहारसे विचार करके जाने। जाने बिना आगे नहीं बढ सकता। जाननेके लिये सब ज्ञान करे, परन्तु सम्यक श्रद्धा होती है, तभी सम्यकज्ञान होता है। अंतर्मुहूर्तमें एक श्वासोश्वासमें अज्ञानी जो कर्म क्षय करता है, लाख-क्रोड भव हो, उसे ज्ञानी अंतर्मुहूर्तमें क्षय करता है। अंतर्मुहूर्तमें क्षय करे तो ज्ञान और श्रद्धा साथमें होते हैं। उसमें चारित्रका क्रम होता है। लेकिन श्रद्धा-ज्ञानमें क्रम नहीं होता। उसे अभी लीनता कम रहती है, स्वरूपाचरण चारित्र-स्वरूपमें विशेष-विशेष लीन होनेका प्रयत्न (चलता है)। श्रद्धासे जाना कि यह ज्ञायक वही मैं हूँ और कोई भी विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। रागादिका मैं कर्ता नहीं हूँ। मेरे स्वभावका कर्ता हूँ। तो भी अल्प अस्थिरतासे अस्थिरत परिणति होती है, उसमें रागादि होते हैं। इसलिये स्वयं स्वरूपकी वीतराग दशा प्रगट करनेका प्रयत्न करता रहता है। वीतराग दशा कैसे प्रगट हो? स्वानुभूतिकी दशा वर्तमान शुद्धि हो, उस अनुसार उसकी स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है।
मुमुक्षुः- सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान तो एकसाथ होते हैं, परन्तु उसके पहले पूर्वभूमिकामें ज्ञान होते-होते साथमें श्रद्धानका कुछ काम चलता है कि नहीं?
समाधानः- ज्ञानके साथ श्रद्धाका काम चले, परन्तु उसे सम्यक परिणति यथार्थ श्रद्धा हो तभी कहा जाता है। ज्ञायकका आश्रय अंतरमें यथार्थपने आया और ज्ञायकका आलम्बन लिया, तब उसे, यही ज्ञायक, तो ही उसे श्रद्धा कहा जाता है। श्रद्धाका काम चले, विचारसे नक्की करे कि ज्ञानस्वभाव मैं हूँ, यह सब मैं नहीं हूँ, ऐसे विचारसे नक्की किया करे, सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा करे, यह ज्ञानस्वभाव सो मैं, ऐसे विचारसे नक्की किया करे, वह सब श्रद्धाका काम साथमें चलता है। परन्तु सम्यक तो ज्ञायकका अवल्बन ले तभी कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- ऐसा नहीं है कि ज्ञानका काम चलता हो और श्रद्धा तो एक समयमें फटाकसे मिथ्यात्व (छूट जाय) ऐसा नहीं है।
समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं है। विचारमें श्रद्धा होती है। परन्तु वह सम्यक नहीं कहलाती। ज्ञायकका अवलम्बन ले तब (सम्यक कही जाती है)।
मुमुक्षुः- माताजी! दूसरा प्रश्न है। पूज्य गुरुदेवश्रीका उपदेश जिज्ञासा और भावनासे सुनकर, मैं एक ज्ञायक हूँ, शरीर नहीं हूँ, इतना ज्ञान हो तो सम्यग्दर्शन हुआ कहा