પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રી સમ્યગ્દર્શન વિષે બહુ કહેતા. તે કેવી રીતે મેળવવું? 0 Play पूज्य गुरुदेवश्री सम्यग्दर्शन विषे बहु कहेता. ते केवी रीते मेळववुं? 0 Play
માતાજી! સમ્યક્શ્રદ્ધા અને જ્ઞાન બંને સાથે થાય છે તે તો બરાબર છે પણ માતાજી! સ્વરૂપનું જ્ઞાન અને શ્રદ્ધાન બંને સાથે ચાલે છે કે ક્રમ છે? સમ્યગ્દર્શન થતાં પહેલાંની ભૂમિકામાં જ્ઞાન થતાં શ્રદ્ધાનું કામ ચાલે છે? 4:50 Play माताजी! सम्यक्श्रद्धा अने ज्ञान बंने साथे थाय छे ते तो बराबर छे पण माताजी! स्वरूपनुं ज्ञान अने श्रद्धान बंने साथे चाले छे के क्रम छे? सम्यग्दर्शन थतां पहेलांनी भूमिकामां ज्ञान थतां श्रद्धानुं काम चाले छे? 4:50 Play
પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રીનો ઉપદેશ જિજ્ઞાસા અને ભાવનાથી સાંભળી ‘હું એક જ્ઞાયક છું શરીર હું નથી’ તેટલાથી સમ્યગ્દર્શન કહેવાય? 6:10 Play पूज्य गुरुदेवश्रीनो उपदेश जिज्ञासा अने भावनाथी सांभळी ‘हुं एक ज्ञायक छुं शरीर हुं नथी’ तेटलाथी सम्यग्दर्शन कहेवाय? 6:10 Play
વસ્તુ પોતાનો સ્વભાવ ટકાવીને પરિણમે છે તે વિષે.... 11:40 Play वस्तु पोतानो स्वभाव टकावीने परिणमे छे ते विषे.... 11:40 Play
દ્રષ્ટિના વિષયભૂત એવો ત્રિકાળ પંચમભાવ સદાય એકરૂપ રહે છે તે દ્રષ્ટિ અપેક્ષાએ છે કે પરમાર્થે એ રીતે છે? 12:25 Play द्रष्टिना विषयभूत एवो त्रिकाळ पंचमभाव सदाय एकरूप रहे छे ते द्रष्टि अपेक्षाए छे के परमार्थे ए रीते छे? 12:25 Play
અલિંગગ્રહણના પ્રવચનમાં આવેલું કે દ્રવ્ય-ગુણ સામાન્ય છે અને પર્યાય વિશેષ છે આપણે ગુણને પણ વિશેષ લઈએ છીએ તે કેવી રીતે છે? 14:00 Play अलिंगग्रहणना प्रवचनमां आवेलुं के द्रव्य-गुण सामान्य छे अने पर्याय विशेष छे आपणे गुणने पण विशेष लईए छीए ते केवी रीते छे? 14:00 Play
(સમ્યગ્દર્શનમાં) નવ તત્ત્વની શ્રદ્ધા છે–સ્વ-પરની શ્રદ્ધા છે, સ્વની શ્રદ્ધા છે, કે સ્વ સામાન્યની શ્રદ્ધા છે? 16:50 Play (सम्यग्दर्शनमां) नव तत्त्वनी श्रद्धा छे–स्व-परनी श्रद्धा छे, स्वनी श्रद्धा छे, के स्व सामान्यनी श्रद्धा छे? 16:50 Play
ઇન્દ્રિયજ્ઞાનવાળા અમો ભેદથી અભેદમાં છલાંગ કેવી રીતે મારીએ? 19:20 Play इन्द्रियज्ञानवाळा अमो भेदथी अभेदमां छलांग केवी रीते मारीए? 19:20 Play
मुमुक्षुः- गुरुदेव सम्यग्दर्शनके लिये बहुत कहते थे, सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त करना? माताजी! दूसरा प्रश्न है, स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धान साथ-साथ चलते हैं कि उसमेंकोई क्रम है?
समाधानः- स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धा, सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान दोनों साथ-साथ हैं। उसमें क्रम नहीं है। लेकिन शुरुआतमें आत्माको जाननेके लिये, मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? उसका जब निर्णय करे तब वह ज्ञान बीचमें आता है। मेरा ज्ञायक, मेरा ज्ञानस्वभाव है। तब निर्णय करे और श्रद्धा बादमें होती है, उसे क्रम कहते हैं। वह क्रम व्यवहार है। वास्तविकरूपसे श्रद्धा और ज्ञानमें क्रम नहीं है। सच्ची श्रद्धा हो तब ज्ञानको सम्यक नाम दिया जाता है। सम्यक श्रद्धा होती है तब दोनों साथमें ही है। उसमें क्रम नहीं है। दोनों साथमें है।
जिस क्षण सम्यक श्रद्धा होती है, उसी क्षण सम्यकज्ञान होता है। उसमें क्रम नहींहै। चारित्रमें क्रम पडता है। चारित्रमें क्रम है। सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान दोनों साथमें ही हैं। चारित्रमें क्रम है। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन होता है तो अमुक अंशमें सर्व गुण निर्मल होते हैं। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। आत्माका-ज्ञायकका अवलम्बन लिया। ज्ञायकका अवलम्बन लिया, उसकी श्रद्धा की तो उसके साथ ज्ञान भी सम्यक होता है। श्रद्धा एक ज्ञायकको ग्रहण करती है और ज्ञान आत्माको भी ग्रहण करता है, ज्ञायकको ग्रहण करता है, पर्यायका ख्याल है, अधूरी-पूरी पर्यायका ख्याल है। लेकिन वह साथमें ही है।
कोई ऐसा माने कि सम्यक श्रद्धा और ज्ञान हुआ, पूर्ण दृष्टि हुयी तो उसके साथचारित्र-लीनता भी आ गयी, पूर्ण दृष्टि हुयी-सम्यग्दर्शन हुआ इसलिये सब आ गया और सब निर्मलता हो गयी, ऐसा नहीं है। उसमें चारित्रका क्रम पडता है। अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान हो तो भी सम्यक श्रद्धा और ज्ञान साथमें होते हैं और चारित्रमें क्रम पडता है। चारित्रमें क्रम है। सम्यक श्रद्धा और ज्ञानमें क्रम नहीं है।
चारित्र, स्थिरता, लीनता उसके पुरुषार्थ अनुसार वर्धमान होता जाता है। लीनतामेंक्रम पडता है। ज्ञान और श्रद्धा हो, इसलिये पूरा हो गया ऐसा नहीं है। अभी उसे