४१४ दोनोंको जानता है। अधूरी पर्याय है, पूर्ण शुद्धि, पूर्ण पर्याय कैसे प्रगट हो? अंतरमें उसकी भावना है। पुरुषार्थकी डोर चालू है। वह कब होता है? कि ज्ञायकके आश्रयके आलम्बनसे ही होता है।
मुमुक्षुः- परमात्म स्वरूप है वह मूल आत्मा है।
समाधानः- वह मूल आत्मा है। वह मूल वस्तु है।
मुमुक्षुः- पर्यायें व्यवहार आत्मा?
समाधानः- व्यवहार आत्मा। दो आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है, एक ही है। सामान्य- विशेष, दो आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है। सामान्य अनादिअनन्त है, पर्याय भी वस्तुका स्वरूप है। द्रव्य-गुण-पर्याय सब वस्तु है। पर्याय एक अंशरूप, भेदरूप है। वह टिकती नहीं, बदल जाती है। गुण है, गुणभेद लक्षणभेद है। परन्तु जो पूरी सामान्य वस्तु है, वह पूरी वस्तु मूल वस्तु है, असल है। आलम्बन उसका लेना है।
मुमुक्षुः- सामान्यको पूरी वस्तु कहनी?
समाधानः- पूरी यानी उसमें पर्याय गौण होती है। पर्याय भिन्न नहीं हो जाती, गौण होती है। लेकिन सामान्य जो टिकनेवाला है, वह मूल है। वह मूल वस्तु है। यह सब उसका स्वरूप है। पर्याय है, गुण है।
मुमुक्षुः- निर्विकल्प उपयोगके वक्त जो शुद्धनयका आलम्बन है और लडाईके समय शुद्धनयका निरंतर आलम्बन है, उन दोनों शुद्धनयमें क्या अंतर है?
समाधानः- आलम्बन एक ही जातका है। परन्तु उस परिणतिमें शुद्धि निर्मलता है। अशुद्धि गौण हो गयी। उसे उपयोगमें भी नहीं है। और स्वानुभूतिमें निर्विकल्पताका वेदन है। लडाईमें निर्मलताका वेदन नहीं है। उसने आलम्बन लिया है ज्ञायकका। निर्मलताका वेदन उसे जितना भिन्न हुआ उतना है। लेकिन स्वानुभूतिकी तो पूरी अलग बात है। उसमें प्रगटरूपसे निर्मलताका वेदन है। उपयोगमें वेदन है।
मुमुक्षुः- लडाईमें भी स्वरूपाचरण चारित्र.. समाधानः- स्वरूपाचरण है, लेकिन वह वेदन अलग है, सविकल्पताका। अमुक ज्ञायक-ओरकी शांति, तृप्ति है। परन्तु स्वानुभूतिका वेदन है वह वेदन उस वक्त नहीं है। स्वानुभूतिका वेदन नहीं है। उसके वेदनमें फर्क है।