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ऐसी भावना है और द्रव्य पर दृष्टि, ज्ञायककी दशा, ज्ञायककी डोर छूटती नहीं। चाहे जैसे बाह्य संयोगमें हो, साधनाकी पर्यायमें हो, ध्यानमें हो तो भी उसकी ज्ञायककी डोरी छूटती नहीं। और यह लडाईके प्रसंगमें हो तो भी उसकी ज्ञायककी डोरी अन्दर है। भेदज्ञानकी धारा और ज्ञायकको ग्रहण किया है, वह ग्रहण किया, जो आलम्बन लिया वह आलम्बन उसे छूटता नहीं। बाह्य कोई भी संयोग उसे तोड नहीं सकते। ऐसा आलम्बन आवे तो ही उसकी साधकदशाकी पर्यायें होती है।
आचार्यदेव कहते हैं, मैं शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ। तो भी अरे..! मेरी परिणति कल्माषित- मैली हो रही है। शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति ज्ञायकका आलम्बन है। और अभी चारित्रकी दशा अधूरी है। वह भी उसे ज्ञानमें साथमें वर्तती है। ज्ञानमें सब वर्तता है। पुरुषार्थकी डोरी लीनताकी ओर जाती है और ज्ञायकका आलम्बनका बल और आश्रय भी साथमें चलता है। उसे ज्ञायक, प्रत्येक प्रसंगमें ज्ञायक। ध्यान हो, शुक्लध्यान हो तो भी वह व्यवहार है। लेकिन वह साधकदशा बीचमें आये बिना रहती ही नहीं। क्योंकि पर्याय, विभावकी पर्याय होती है। उससे भेदज्ञान हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ और स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी, फिर स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है, फिर भी अभी अधूरी पर्याय है, उसका कर्ता होता नहीं, तो भी अस्थिरतामें रागादि वर्तते हैं, अपने पुरुषार्थकी कमजोरीसे। उसका उसे ख्याल है। इसलिये पुरुषार्थकी डोर अपनी ओर चालू ही है। लीनता-अन्दर स्वरूपमें समा जानेकी लीनता चालू ही है।
मुमुक्षुः- परमात्मतत्त्व भी पदार्थका अंश है और ध्यानावली भी पदार्थका अंश है। यह अंश है वह आश्रयरूप है, और यह अंश गौण करना..
समाधानः- परमात्मतत्त्व है वह स्वयं पूरा द्रव्य है। अनन्त सामर्थ्यसे भरपूर द्रव्य है पूरा। सामान्य स्वभाव है। लेकिन वह पूरी वस्तुका सामर्थ्य है। अभेद है। ध्यानावली है वह साधकदशा है। उसमें शुभभाव मिश्रित है। और एकाग्रता जो अंतरमें होती है, जो अंतरमें विकल्प छूटकर होती है, एकाग्र परिणति अन्दर स्वरूपकी रमणता वह अलग बात है। वह निर्विकल्प ध्यान है। और यह विकल्पवाला ध्यान है, उसमें शुभभावका आश्रय है। तो भी एकाग्रता हो, चौथे गुणस्थानमें जो स्वरूप रमणता है, पाँचवे गुणस्थानमें जो शुद्धि प्रगट हुयी है, छठ्ठे-सातवेंमें (शुद्धि प्रगट हुयी है) वह भी अधूरी पर्याय है। अधूरी पर्याय भी पूर्ण स्वभाव, मूल स्वभाव, असल स्वरूप उसका नहीं है। अधूरी पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है। उसे भी वह गौण करता है।
अधूरी पर्यायकी भूमिका बढती जाती है, गुणस्थानकी दशा, छठ्ठे-सातवेंमें, फिर श्रेणि मांडता है, वह सब अधूरी पर्याय है। अधूरी पर्याय और पूर्ण पर्याय, सब द्रव्यदृष्टिमें गौण होती है। सबको निकाल देती है। तो भी ज्ञानमें दोनों वस्तु उसे ख्यालमें है।