Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

४१२ देती है। ध्यानावलीको निकाल देती है, पाँच ज्ञानके भेद भी उसमें नहीं है, उसमें गुणस्थान भी नहीं है। कोई वस्तु उसमें नहीं है। जो अनादिअनन्त वस्तु है, वह स्थिररूप वस्तु है। जो पर्याय बदलती है, वह आश्रयका कारण नहीं बनती। आश्रय तो जो अनादिअनन्त वस्तु है, वही आश्रयरूप है। इसलिये आश्रय तो अनादिअनन्त वस्तु है वही आश्रयरूप है। इसलिये आश्रय तो अनादिअनन्त पूर्ण वस्तु है, उसीका आश्रय करने योग्य है।

दृष्टि यदि ज्ञायकको पहचाने तो ही यथार्थ साधकदशा होती है। बाकी साधकदशा होती नहीं। इसलिये ध्यानावली भी आत्मामें नहीं है। द्रव्यदृष्टिक आलम्बनमें ध्यानावली नहीं है। परन्तु वह ध्यान बीचमें आये बिना रहता नहीं। आचार्यदेव कहते हैं कि अरे..रे..! हस्तावलंबनतुल्य यह व्यवहार बीचमें आये बिना रहता नहीं। क्योंकि अभी अधूरी दशा है। इसलिये वह बीचमें आये बिना रहता नहीं।

लडाईमें खडा हो तो भी शुद्धनय छूटता नहीं। शुद्ध स्वरूपको-ज्ञायकको ग्रहण किया, उस ज्ञायकका अवल्मब लडाईमें भी छूटता नहीं। अनादिसे जो शाश्वत वस्तु है, वह निगोदमें गया, कहीं भी गया, ज्ञानकी शक्ति घट गयी, परन्तु अन्दर जो मूल शक्ति है, उसमें कुछ घटता नहीं। अनादिअनन्त वस्तुका नाश नहीं होता। चाहे जैसे विभावकी पर्याय हो तो भी। तो फिर द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसे कौन रोक सकता है? ज्ञायकका अवलम्बन लिया, वह लडाईमें खडा हो तो भी ज्ञायक है, ध्यानावलीमें हो तो भी ज्ञायक ही है। साधकदशामें पूर्ण ज्ञायक पर दृष्टि है। साधकमें भी ज्ञायक और अशुभभावमें लडाईमें खडा हो तो भी ज्ञायक है। उसे कोई रोक नहीं सकता। तो भी उसे अन्दर अशुभभावमें खडा हुआ, लडाईमें खडा है, अरे..! मैं कब साधकदशामें पूर्ण स्वरूपकी प्राप्ति करुँ? अरे..! यह अधूरी दशा है, मेरा ज्ञायक पूर्ण स्वरूप है, उसे यह अधूरी दशा शोभती नहीं। मैं कब वीतराग होऊँ? ऐसी भावना तो उसे रहती ही है।

मुमुक्षुः- ध्यानावली भी व्यवहार...

समाधानः- ध्यानावली भी व्यवहार ही है। शुक्लध्यान भी व्यवहार है। द्रव्यदृष्टिमें, द्रव्यके अन्दर बाहरसे कुछ आता नहीं। वह सब तो साधना है। अनादिअनन्त वस्तु जो है, वह सामर्थ्यसे भरपूर है। अधूरी हो तो अधूरेका आलम्बन होता नहीं। इसलिये शुक्लध्यान हो, परन्तु वह व्यवहार है। वह भी व्यवहार है। केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट होती है, तो भी वह पर्याय है। है पूर्णता, पूर्ण, परन्तु वह भी पर्याय है। शुक्लध्यान तो साधनाकी पर्याय है, परन्तु केवलज्ञान हो तो भी वह पर्याय है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानके भेद पर दृष्टि नहीं है। केवलज्ञान हो तो भी। वह भी पर्याय है। दृष्टि ज्ञायक पर और पूर्णता प्रगट करनेकी भावना, यह दोनों साथमें होते हैं। पुरुषार्थकी डोर चालू है। चारित्र-लीनता आत्माके स्वरूपमें कैसे समा जाऊँ? बाहर आऊँ नहीं,