Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

४२० नहीं है, परन्तु एक द्रव्यका ही स्वरूप है। इसलिये एकरूप है, द्रव्यके साथ गुण एकरूप है। इसलिये द्रव्य और गुणको एक लें तो सामान्य है। परन्तु लक्षण अपेक्षासे भिन्न पडता है, इसलिये उसे विशेष कहनेमें आता है।

आम लो तो उसमें उसके सब गुण हैं। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सब उसमें समा जाते हैं, इसलिये एक अभेद। गुणको भिन्न नहीं करो तो एक आम है। परन्तु उसके रंग, रस सबको भिन्न करो तो वह गुण भी विशेष है। परन्तु उसकी पर्यायें खट्टा, मीठा, सफेद, हरा, पीला वह सब उसकी पर्यायें होती हैं। उसका परिणमन वह पर्याय है। आमका जो परिणमन है वह पर्याय है। ऐसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र उसके गुण हैं।

मुमुक्षुः- नौ तत्त्वकी श्रद्धा है या स्वपरकी श्रद्धा है या स्वकी श्रद्धा है या स्व सामान्यकी ही मात्र श्रद्धा है?

समाधानः- श्रद्धामें सब आ जाता है। एक सामान्यकी श्रद्धा, एक द्रव्य पर दृष्टि, उसमें एक आत्मश्रद्धा, तत्त्वकी श्रद्धा, एक मूल वस्तु आत्माकी श्रद्धा। वह मूल श्रद्धा (है)। उसके साथ व्यवहारमें भेद अपेक्षासे सब आता है। स्वपरकी श्रद्धा। अपनी श्रद्धा, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे स्वपरकी श्रद्धा आयी। उसमें नौ तत्त्वकी श्रद्धा आयी। दृष्टि अपेक्षासे एककी श्रद्धा। ज्ञान अपेक्षासे सब आता है। यह अपनी श्रद्धा और यह पर है, यह मैं हूँ, एसे स्वपरकी श्रद्धा। नौ तत्त्वकी श्रद्धा, वह सब उसमें साथमें आता है।

मुमुक्षुः- स्वकी श्रद्धामें सब..?

समाधानः- हाँ। अभेद अपेक्षासे एककी श्रद्धा। उसका विशेष ले तो सब श्रद्धा अन्दर साथमें आती है। जीवकी, अजीवकी, आस्रव.. कोई अपेक्षासे जीवको विभाव है, विभावसे छूट सकता है, आंशिक शुद्धि हुयी-संवर, ज्यादा शुद्धि हुयी-निर्जरा, कर्मकी ओरसे लें तो कर्म अटक गये-(संवर), अन्दरमें शुद्धि बढती जाय वह निर्जरा। पूर्ण शुद्धि हो गयी, केवलज्ञान मोक्ष (हुआ), वह सब श्रद्धा। साधक-साध्य सबकी श्रद्धा साथमें आ जाती है, भेद अपेक्षासे। अन्दर एक तत्त्व, अन्दर द्रव्य दृष्टिकी अपेक्षासे एक सामान्य अभेदकी श्रद्धा है। विशेषमें सब आता है।

मुमुक्षुः- अतीन्द्रियज्ञानकी प्राप्ति बिना, हम इन्द्रियज्ञानवाले भेदमेंसे अभेदमें कैसे छलांग लगाये?

समाधानः- भेद भले रहे, परन्तु अभेद स्वरूप स्वयं है ना, कोई दूसरा नहीं है। अभेद अतीन्द्रिय स्वरूप स्वयं ही है, उसकी दृष्टि बाहर गयी है। उपयोग बाहर घुमता है इसलिये यह इन्द्रिय, मन आदिका आलम्बन बीचमें आता है। परन्तु मैं निरालंबी तत्त्व हूँ, उसकी श्रद्धा करे। जूठी मान्यता हो गयी है कि यह पर मैं और मैं सो