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ऐसी परिणति होती है। वास्तविक तो बादमें होता है, परन्तु उसे ऐसा दृढ निर्णय होता है।
मुमुक्षुः- आत्मा इतना शक्तिशाली होने पर भी हाथमें नहीं आता, तो यह कमजोरी क्यों रह जाती है?
समाधानः- आत्मा..?
मुमुक्षुः- शक्तिशाली होनेपर भी हाथमें नहीं आता है।
समाधानः- नहीं आता है, वह अपनी क्षति है। शक्तिवान होने पर भी नहीं आता है। स्वयं परपदार्थमें रुचि रखकर पडा है, आत्माकी रुचि करता नहीं। अनन्त शक्तिवान और अनन्त महिमावंत है। स्वयंको महिमा नहीं आती है। अनन्त शक्तिवानका उसे निर्णय नहीं आता है, उसे दृढता नहीं होती है कि मैं शक्तिशाली हूँ। मैं अनन्त सामर्थ्यवान हूँ, उसे स्वयंको श्रद्धा नहीं होती है। इसलिये प्रगट नहीं होता है। श्रद्धा हो तो प्रगट होता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धा कैसे करनी?
समाधानः- श्रद्धा तो श्रद्धा करनेसे श्रद्धा होती है। सब शंका छोडकर अन्दर समझकर श्रद्धा करे। यह जाननेवाला है वही मैं हूँ। मैं अनन्त सामर्थ्यसे भरपूर आत्मा हूँ। यह सब मैं नहीं हूँ। मैं तो अनन्त शक्तिवान हूँ। यह कोई मुझे रोकते नहीं। कर्म मुझे रोकता नहीं या परपदार्थ रोकते नहीं। मैं तो अनन्त शक्तिशाली आत्मा हूँ। ऐसी श्रद्धा करे तो होती है। किये बिना नहीं होती।
.. अनन्त बार गया लेकिन वापस आया। समवसरणमें अनन्त बार गया परन्तु भगवानको पहचाना नहीं। भगवान किसे कहते हैं? भगवानका सब बाहरसे देखा। भगवानकी ऋद्धि, समवसरण.. यह भगवान है ऐसा मान लिया। ऐसी ऋद्धि हो वह भगवान और गन्धकूटीमें पीठिका पर बैठे हो वह भगवान, ऐसी वाणी छूटे वह भगवान। अंतरमें भगवान कैसे, उसे भगवानकी महिमा आयी नहीं। भगवानकी वाणीमें क्या आता है, उसका विचार करके ग्रहण किया नहीं। भगवानकी अंतरसे महिमा नहीं आयी। ऐसे ओघेओघे भगवानकी महिमा आयी। बिना समझे ही यह भगवान है, ऐसा मान लिया। भगवानका शरीर ऐसा है, भगवानकी वाणी ऐसी है, ऐसे सब ऊपर-ऊपरसे मान लिया। अंतरसे भगवानको नहीं पहचाना। भगवानका द्रव्य क्या? भगवानका गुण क्या? भगवानकी पर्याय क्या? कुछ नहीं पहचाना। इसलिये समवसरणमेंसे वापस आया। भगवान किसे कहते हैं, अंतरमेंसे वह महिमा नहीं आयी है। इसलिये वापस आया है।