Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-०७०

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रकी भक्तिसे नहीं मिलता है?

समाधानः- भक्ति निमित्त बने, करना स्वयंको पडता है। भक्तिसे कुछ होता नहीं। वह तो बीचमें आती है। अशुभभावसे बचनेको अंतरमें नहीं हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आये बिना रहती नहीं। भक्ति, स्वाध्याय, विचार, वांचन, सब बीचमें आता है। तो भी स्वयंको पहचानना पडता है। आत्माको पहचानना। वह सब बीचमें आता है।

मुमुक्षुः- बहुत वांचन नहीं हो सकता हो..

समाधानः- वांचन नहीं हो सके तो प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो स्वयंको पहचान सकता है। ज्यादा वांचन करे तो होता है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन वह सब स्वयंको विचार करनेके लिये शास्त्र स्वाध्याय बीचमें होता है, परन्तु वह ज्यादा ही चाहिये, ऐसा नहीं है। प्रयोजनभूत आत्माको जाने कि मैं जाननेवाला हूँ और यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा अंतरसे जाने कि यह सब परद्रव्य है, मैं आत्मा भिन्न हूँ। मेरा स्वभाव भिन्न है, आकुलता मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रयोजनभूत स्वयं जाने तो ज्यादा वांचन नहीं हो तो भी अंतरमें कर सकता है।

मुमुक्षुः- स्वपरका भेदज्ञान?

समाधानः- स्वपरका भेदज्ञान। द्रव्य पर दृष्टि। मैं चैतन्यद्रव्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। भेदज्ञान और द्रव्य पर दृष्टि। द्रव्य पर दृष्टि हो उसे भेदज्ञान होता है। भेदज्ञान हो और द्रव्य पर दृष्टि हो, वह दोनों साथमें ही है।

मुमुक्षुः- पहले भेदज्ञान कैसे करना? शरीरसे, बाहरके पदार्थ प्रतिकूल हो, उससे भेदज्ञान हो सकता है पहले?

समाधानः- वह तो क्रम कहनेमें आता है, परन्तु जब अंतरसे भेदज्ञान होता है तब सच्चा भेदज्ञान होता है। बाकी विचार करे कि शरीरसे मैं भिन्न हूँ, यह बाह्य पदार्थसे मैं भिन्न हूँ, वह कुछ जानते नहीं, मैं जाननेवाला भिन्न हूँ, ऐसा पहले विचार करे। यह शरीर भिन्न, यह जड कुछ जानता नहीं। मैं तो जाननेवाला भिन्न हूँ। यह बाह्य परद्रव्य मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। यह शरीर भी भिन्न है तो बाहरकी तो क्या बात करनी? उससे भिन्न, शरीरसे भिन्न परन्तु अंतरमें जो आकुलता, विकल्प उत्पन्न होते हैं, उस विकल्पसे अपना स्वभाव भिन्न है। मैं तो निर्विकल्प तत्त्व हूँ। तब उसे सच्चा भेदज्ञान होता है।

इतना करे तो भी वह तो स्थूल हुआ है कि परद्रव्यसे भिन्न और शरीरसे भिन्न। अन्दर जो सूक्ष्म भाव है, शुभाशुभ भावोंसे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसे प्रतीत हो, ऐसी परिणति हो, तब सच्चा भेदज्ञान होता है। मैं तो चैतन्यद्रव्य हूँ, इन सबसे मैं भिन्न हूँ।