Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

४३२ मन्द हो तो बारंबार पुरुषार्थ करे, तो भीतरमें प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं।

भगवानके दरबारमें जाना है तो भगवानके द्वार पर टहले लगाये तो भगवानके द्वार खुल जाते हैं। ऐसे ज्ञायकके द्वार पर ज्ञायक.. ज्ञायक.. ऐसे उसकी टहेल लगाता रहे। भीतरमें ज्ञायकदेवका दर्शन हुए बिना रहता नहीं।

मुमुक्षुः- ज्ञायकका प्रचार करते हैं, बीच-बीचमें आस्रवभाव आ जाते हैं, उन्हें हटाते हैं तो हटते नहीं है, हमको परेशान करते हैं।

समाधानः- भीतरमें आस्रवभाव आवे तो बार-बार पुरुषार्थ करे। उसका जोर चलने नहीं देवे। आत्माकी ओरका पुरुषार्थ करे। आस्रवका जोर चलने नहीं देना। अनादिका अभ्यास है, बीचमें आता है तो उसका जोर नहीं चलने देना। आत्माका बारंबार उग्र पुरुषार्थ करे तो हो सकता है। ज्यादा आ जाय, ज्यादा सीख ले, ऐसा नहीं है। विचार करे, मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको जाने तो भीतरमें हो सकता है। आत्माका स्वभाव और विभावका स्वभाव भिन्न करके, ज्ञायकका स्वभाव है, प्रज्ञाछैनी द्वारा उसका भेद करके, मैं ज्ञायक ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ, यह विभाव है, मेरा स्वभाव भिन्न है। ऐसा उग्र पुरुषार्थ करके स्वरूप ग्रहण कर ले। भीतरमें ज्ञायककी परिणति प्रगट कर ले, तो हो सकता है। मेरे द्रव्य-गुण सब भिन्न हैं, उसका द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न है, विभावका स्वभाव भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करे। द्रव्य पर दृष्टि करे तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- माताजी! विकल्पके कालमें पुरुषार्थ और अलगसे चलता है? या विकल्प ही पुरुषार्थ है?

समाधानः- जब निर्विकल्प नहीं होता हो तो विकल्प होते हैं। परन्तु भीतरमें उसकी जो भावना है, उस भावनाकी उग्रता करके और ज्ञान अपनी ओर दिशा बदलकर ज्ञायकको ग्रहण करके विकल्प गौण हो जाता है। विकल्प छूटता नहीं, विकल्प तो निर्विकल्प दशा जब होवे तब छूटता है। परन्तु विकल्पको गौण करके, ज्ञान अपनेको ग्रहण करता है, अपनी ओर जिसे रुचि लगी, वह ज्ञान अपनी ओर जाकर ज्ञायकको ग्रहण करता है।

मुमुक्षुः- ज्ञानने अपनेको कभी देखा नहीं है तो ज्ञान किस बल पर अपनेको भीतर ले आये?

समाधानः- देखा नहीं है तो भी ज्ञान अपने स्वभावको ग्रहण कर लेता है। स्वयं ही है, दूसरा तो है नहीं। ज्ञायक स्वयं और ज्ञान भी अपना, सब स्वयं ही है। स्वयं स्वयंको ग्रहण कर सकता है। दूसरा नहीं है। देखा नहीं है तो भी ग्रहण कर सकता है, स्वभावको पहचानकर।

मुमुक्षुः- शास्त्रमें तो ऐसा आता है कि विभाव द्वारा स्वभावका भाना अशक्य