०७०
मुमुक्षुः- वर्णनमें नहीं आये।
समाधानः- वर्णनमें नहीं आता।
मुमुक्षुः- अनुभवमें आये।
समाधानः- अनुभवमें आये।
मुमुक्षुः- कैसा अनुभव होगा?
समाधानः- स्वयं अनुभव करे तब वह समझ सके। बाकी उसका मार्ग शास्त्रमें आता है। लगनी लगी नहीं है, नहीं तो प्राप्त हुए बिना रहे ही नहीं। लगनीमें न्यूनता है, पुरुषार्थकी न्यूनता है, प्रमाद है। प्रमाद है।
मुमुक्षुः- प्रमाद ही ज्यादा है।
समाधानः- लगनी लगती नहीं है, वह प्रमाद है। लगनीकी न्यूनता है और प्रमाद है। आज ही कार्य करना है, आज ही करना है, ऐसा अन्दर पुरुषार्थ नहीं है, प्रमाद है।
मुमुक्षुः- प्रमाद तो ... होगा, .. तो ही उसे प्रमाद रहता होगा न?
समाधानः- भरोसा होगा, लेकिन उसे प्रमाद रहता है। उतनी लगी नहीं है, इसलिये रहता है। देह टिकनेवाला है ऐसा भरोसा अप्रगट समझे, बाकी उसे ऐसा भी होता है कि यह शरीर हमेशा नहीं टिकनेवाला है, लेकिन अन्दरसे उसे सच्चा निर्णय नहीं होता। स्थूलतासे समझे कि यह शरीर परद्रव्य है, टिकेगा नहीं, परन्तु अंतरमें प्रमाद करता है वह स्वयं करता है। अन्दर सच्ची लगे तो तैयार हुए बिना रहे नहीं।
मुमुक्षुः- देह कभी भी छूटे तो भी उसकी तैयारी अन्दर होनी चाहिये।
समाधानः- तैयारी होनी चाहिये, क्षण-क्षणमें तैयारी होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक, बस।
समाधानः- ज्ञायकका रटन होना चाहिये।
मुमुक्षुः- रटन करते-करते अन्दर लगनी लग जाती होगी?
समाधानः- अन्दर सच्ची लगानेवाला स्वयं है। कैसे लगे? स्वयंको लगानी है। रटन करते नहीं, उसकी जरूरत लगे तो लगनी लगे तो पुरुषार्थ हो। जरूरत लगती नहीं।
मुमुक्षुः- ... लेकिन निद्रामें क्यों नहीं रहता?
समाधानः- जिसको ज्ञायककी रुचि लगे तो ज्ञायककी रुचि तो रुचिवालेको छूटती नहीं। निद्रामें रुचि तो ज्ञायककी होनी चाहिये। निद्रामें पुरुषार्थ मन्द हो जाता है, रुचि तो ज्ञायककी लगनी चाहिये। स्वप्न आये तो भी मैं ज्ञायक, मुझे कैसे प्रगट हो? ऐसी भीतरमेंसे गहरी लगनी लगनी चाहिये। पुरुषार्थ मन्द हो तो बारंबार पुरुषार्थ करे, उसमें थके नहीं। बारंबार, बारंबार, उसकी महिमा छूटे नहीं, उसकी लगनी छूटे नहीं, पुरुषार्थ