१० उसमें वह अंश है और (द्रव्य) अंशी है। इतना भेद है। अंश-अंशीका भेद है। सर्वथा भेद-कोई भिन्न-भिन्न टूकडे नहीं है, भिन्न टूकडा नहीं है कि पर्याय कोई भिन्न है और द्रव्य भिन्न है। द्रव्य भिन्न है और पर्याय भिन्न है। ऐसा हो तो पर्याय द्रव्य हो जाय। पर्याय जुदी होवे तो पर्याय द्रव्य हो जाय। पर्याय वैसे भिन्न नहीं है। सर्व अपेक्षासे भिन्न है। परन्तु अंश है और यह अंशी है, इतना भेद है। एक अंश है, एक अंशी है, इतना भेद है।
द्रव्यकी पर्याय है, पर्याय कोई दूसरेकी नहीं है। द्रव्यका वेदन अपनेको होता है। स्वभावकी ओर झुके, स्वभावका वेदन होवे तो पर्याय होती है। परन्तु वह वेदन स्वयंको जाननेमें जाता है, वेदन कोई दूसरेको नहीं होता। अपनेको वेदन होता है। पर्याय अपने द्रव्यमेंसे प्रगट होती है। बाहरसे नहीं आती है।
मुमुक्षुः- समवाय-भवितव्यता, काललब्धि, पुरुषार्थ एक ही समयमें सब समवाय कैसे होते हैं? ... एक ही समयमें पुरुषार्थ और ...
समाधानः- दोनों एकसाथ होते हैं। पुरुषार्थ जो किया वह अपनी ओर झुका, ज्ञायककी ओर पुरुषार्थ झुका, स्वयं पुरुषार्थ करके अपनी ओर झुका वह पुरुषार्थ हुआ। और उसी समय परिणति जो उसका स्वभाव था, उस प्रकारसे जैसे होनेवाला था वैसे हुआ। वह सब साथमें होता है। दोनों विरोधी लगे परन्तु सब साथमें होता है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ, दोनों विरूद्ध लगते हैं। पुरुषार्थसे जो वस्तु प्रगट हुयी, उसी समय क्रमबद्धपर्याय हुयी?
समाधानः- सब एकसाथ होता है। क्रमबद्ध और पुरुषार्थमें सम्बन्ध है। जो होने योग्य था वह हुआ, परन्तु वह होने योग्य उस प्रकारसे होता है कि पुरुषार्थसे होता है। पुरुषार्थ, होने योग्य, स्वभाव आदि सब एकसाथ होते हैं। सब एकसाथ होते हैं। क्षयोपशम, उस प्रकारका क्षयोपशमभाव सब एकसाथ होता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि विरोधाभास तो लगता है..
समाधानः- हाँ, ऐसा लगे।
मुमुक्षुः- .. विकल्पात्मक विचार आये कि शुद्ध परिणतिके समय विकल्प तो रहता नहीं।
समाधानः- शुद्ध परिणतिके समय विकल्प नहीं हो तो भी विकल्पके बिना भी उपयोग तो होता है। उपयोग स्वयं स्वयंको जानता है। बाहर विकल्प यानी रागका विकल्प। रागवाला विकल्प छूट जाय तो भी निर्विकल्परूपसे उसका जानना चला नहीं जाता। जाननेका स्वभाव तो खडा ही रहता है। जानता है, स्वयं स्वभावको जानता है। उपयोग बाहर नहीं है। उपयोग यानी विकल्पात्मक ऐसा उसका अर्थ नहीं होता।