Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

१२

समाधानः- परिणति भिन्न ही रहती है।

मुमुक्षुः- ... उस वक्त भेदज्ञान करना कि मैं शरीरसे भिन्न हूँ, तो वह वास्तविक शरण है, या भगवानको याद करना, वह शरण है? उस दुःखसे कैसे दूर होना?

समाधानः- शरीरकी वेदना भिन्न और आत्मा भिन्न है। अन्दर भिन्न आत्माको जानना वह शरण है। मुख्य शरण वह है। मैं आत्मा जाननेवाला, मैं ज्ञायक, मेरा स्वभाव जाननेका है, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं शरीरसे अत्यन्त भिन्न हूँ। उसकी वेदनामें जो अन्दर दुःख होता है, वह दुःख भी मेरा स्वरूप नहीं है। विकल्प आये कि यह शरीर सो मैं और मैं ही शरीर हूँ, उसके साथ दब जाता है, रागके कारण। वह राग भी मेरा स्वरूप नहीं है और यह शरीर भी मैं नहीं हूँ। मैं तो जाननेवाला, मुख्य शरण वह है। साथमें शुभभावमें भगवान भी उसे शुभभावनामें आये, भगवानको याद करे, परन्तु वास्तविक शरण ज्ञायकको याद करना वह मुख्य शरण है। लेकिन साथमें भगवान याद आये बिना रहे नहीं। ऐसे प्रसंगोंमें जो आत्मार्थी हो उसे भगवान, देव-गुरु-शास्त्र याद आये बिना नहीं रहते। परन्तु साथ-साथ शरण तो ज्ञायकका शरण मुख्य शरण है। ज्ञायकको पहचाननेका प्रयत्न करना। वेदना शरीरमें है, आत्मामें वेदना नहीं है।

मुमुक्षुः- वह टिकता नहीं है, माताजी! क्षणिक शाता होती है, फिर पुनः शरीरकी ओर लक्ष्य जाता है।

समाधानः- बारंबार पलटते रहना, बारंबार। टिके नहीं तो बारंबार आत्माको- ज्ञायकको याद करते रहना। उस विचारमें टिक नहीं पाये तो जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, मनिवर, शास्त्रमें क्या कहा है, गुरुदेवने क्या कहा है, भगवानने क्या कहा है, ऐसे विचार करे परन्तु साथमें ज्ञायकको याद करे। ज्ञायकका मुख्य शरण है। जो मुनिवर आत्माकी साधना करते हैं, भिन्न ही रहते हैं। मुनिवरोंकी साधना... प्रत्येक प्रसंगमें आत्मा एकमेक हो जाय, ऐसा नहीं है, दो द्रव्य भिन्न है। दोनों द्रव्य भिन्न है, एक कहाँ-से हो? जो भिन्न है वह भिन्न ही है।

मुमुक्षुः- तीव्र पुरुषार्थ..

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थको तीव्र (करना)। अन्दरसे एकत्वबुद्धि तोडे। आत्मा भिन्न है वह भिन्न ही है। गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि हो, कोई भी प्रसंगमें भिन्न ही रहते हैं। उसमें एकमेक नहीं होते। शरीरमें कोई वेदना हो अथवा कुछ भी आ जाय, कोई व्यवहारके प्रसंग, प्रवृत्तिके प्रसंगोंमें भी, चक्रवर्तीके राजमें भी सम्यग्दृष्टि भिन्न ही रहते हैं। शास्त्रमें दृष्टान्त आता है न? गृहकाम करते हुए अन्दरसे भिन्न ही रहते हैं। उनकी ज्ञायककी परिणति भिन्न ही रहती है। ज्ञायक तो भिन्न ही है, शरीरकी वेदनके समयमें, ऐसे प्रसंगमें स्वयं भिन्न पडनेका प्रयत्न करना, भावनाको उग्र करके। भिन्न है वह भिन्न