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मुमुक्षुः- कुछ बलवान नहीं होता?
समाधानः- फलवान, उसका कोई फल नहीं आता। बिना अंतरकी दशाके। मात्र अंतरकी जो शांति चाहिये, अंतरमेंसे शांति... मात्र बाह्य त्याग करनेसे अंतरमें जो शांति होती है, वह शांति बाह्य त्यागसे नहीं आती।
मुमुक्षुः- अभी मात्र वैसा शुभभाव करनेसे ...
समाधानः- अंतरमेंसे शुभभाव.... सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें और सच्ची मुनिदशामें उसके साथ शुभभाव है। वह शुभभाव हेयबुद्धिसे आते हैं। वह शुभभाव अलग है और यह शुभभाव (अलग है)।
आत्मार्थीको, मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो? भवका अभाव कैसे हो? ऐसी भूमिकाके साथ शुभभाव होता है, परन्तु उसका ध्येय एक (होता है कि), मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? वह एक ध्येय होता है। वांचन, विचार आदि सब शुभभाव हैं। आत्मा कैसे पहचानमें आये? पहले सच्चा ज्ञान हो बादमें सच्चा होता है। पहले त्याग होता नहीं। ऐसा क्रम नहीं है। पहला क्रम - सच्चा ज्ञान होना वह क्रम है, बादमें त्याग (होता है)।
सच्चा ज्ञान आदि सब... उसके साथ उसे उसकी भूमिकामें कषायकी मन्दता होती है, आत्मार्थीता होती है, उसे कहीं गृद्धिपना नहीं होता, आत्मार्थीता हो, आत्माका प्रयोजन हो, यह सब उसे (होता है)। अमुक अंशमें उसके रस छूट जाते हैं। उसे सब हो जाता है। जिसे आत्माकी लगनी लगी है, उसे सब हो जाता है। रस छूट गये होते हैं, बाह्य सांसारिक सब रस उसे ढीले पड जाते हैं। उसे यथाशक्ति त्याग भी आता है, सब आता है। उसकी शक्ति अनुसार सब आता है।
बाहरसे सब कर ले और अन्दर कुछ नहीं हो। बडा त्याग ले ले और अन्दर कुछ नहीं होता। शुभभाव तो जिज्ञासाकी भूमिकाके साथ अमुक शुभभाव तो होते हैं। उसे त्याग भी होता है, सब होता है।
.... जीवने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे भवका अभाव होता है, आत्माकी स्वानुभूति होती है और जिससे केवलज्ञान तक आत्माकी पूर्णता प्राप्त होती है, ऐसा जो सम्यग्दर्शन वह जीवने प्राप्त नहीं किया है। सब अनन्त बार कर लिया है। बाह्य क्रियाएँ की, त्याग किया, व्रत लिये, पच्चखाण लिये, अभिग्रह धारण किये, उपवास किये, मासखमण किये, सब किया। अभी सब बाहरसे करते हैं वैसा नहीं। शुभभाव आत्माके लिये करता हूँ, ऐसा मानकर किया। परन्तु अन्दर एकत्वबुद्धि (छूटी नहीं)।
आत्मा भिन्न और यह शरीर भिन्न और अन्दर शुभाशुभ भाव होते हैं वह मेरा