२६ है। मैं ज्ञायक हूँ, यह (विभाव) मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ ऐसे बोलनेमात्र नहीं, ऐसी सहज परिणति चलती रहती है। प्रत्येक कार्यमें क्षण-क्षणमें उसको याद नहीं करना पडता है, सहज चलता है। खाते-पीते, स्वप्नमें, निंद्रामें ज्ञायककी धारा चलती है। लेकिन लीनता कम होती है, इसलिये गृहस्थाश्रममें रहते हैं। स्वरूप सन्मुख स्थिर हो जाय तो साथमें लीनता होती है।
एक द्रव्यमें सर्व गुण हैं। परस्पर एक दूसरेको... उपयोग स्वसन्मुख जाय तो चारित्रकी लीनता भी स्वरूपमें होती है। साथमें सब होता है। उपयोग स्थिर हो जाता है तो लीनता-चारित्र भी होता है। गृहस्थाश्रममें स्वरूपाचरण चारित्र होता है। वह होता है। उपयोग स्थिर हो जाय। उपयोग बाहर जाता है। उपयोग स्वरूपकी ओर जाय तो उपयोगमें स्थिरता है, चारित्रगुणमें लीनता भी साथमें है। एक गुण, दूसरा गुण सब साथमें रहते हैं।
मुमुक्षुः- स्वतंत्र है।
समाधानः- सब स्वतंत्र है, फिर भी दृष्टि स्वसन्मुख गयी तो सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन (हुआ)। सर्व गुणका अंश-अंश निर्मल प्रगट होता है। ज्ञान स्वसन्मुख जाता है तो चारित्रकी लीनता भी होती है। चारित्रकी लीनता होती है तो ज्ञानका उपयोग भी स्वरूपमें जाता है।
मुमुक्षुः- अंतर्मुख होता है। समाधानः- अंतर्मुख होता है। सब गुण साथमें काम करते हैं। मुमुक्षुः- होता है सब अपने-अपने उपादानसे। समाधानः- अपने-अपने उपादानसे होता है। सब स्वतंत्र होकरके भी ऐसा भेद नहीं है, टूकडे नहीं है। एक द्रव्यके सब गुण हैं। लक्षणभेद है। सब स्वतंत्र है, फिर भी एक गुणके साथ (सर्व गुण परिणमते हैं)। दृष्टिकी डोर दृष्टिके विषय पर गयी तो वहाँ सर्व गुणकी पर्याय उस ओर (जाकर) निर्मल हो जाती है। सब स्वतंत्र हो तो भी। एक दृष्टि इस ओर आयी और ज्ञान उस ओर बाहर गया, ऐसा नहीं होता। चारित्र स्वरूपमें आये तो ज्ञान बाहर गया, ऐसा नहीं होता। एक गया तो सब जाते हैं स्वस्वरूपमें। सर्व अंश तारतम्यतारूप परिणमित हो जाते हैं।