Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 469 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

३६ चैतन्यदेव कैसे समझमें आये? उतनी स्वयंको अन्दर लगी नहीं है, लगनी नहीं लगी है, उसकी जरूरत नहीं लगी है। बाहर रुका है, पुरुषार्थ उठना उसे मुश्किल पडता है। स्वयंको अन्दर लगी है तो करे बिना रहे नहीं कि यही करना है, दूसरा कुछ नहीं करना है। स्वयंकी क्षति है।

मुमुक्षुः- नवकार मन्त्रके अन्दर द्रव्यलिंगी मुनिराजको भी स्वीकार नहीं किया कि किया?

समाधानः- नवकार मन्त्रमें नमस्कार आते हैं उसमें? वह सब भावलिंगी मुनि हैं, भावलिंगी मुनि हैं, सच्चे मुनि हैं। आचार्य, उपाध्याय, साधु सब भावलिंगी मुनि हैं। उनको नमस्कार किया है।

मुमुक्षुः- भावलिंगी भगवंतोंको ही नवकार मन्त्रके अन्दर लिया गया है।

समाधानः- हाँ। मुनिको लिये हैं। अंतरमें जो छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते मुनिराज हैं। दिगंबर दशा अंतरमें और बाह्य। जिसे अंतरमें अंतरंग दशा प्रगट हुयी है, छठ्ठे- सातवाँ गुणस्थानकी, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति प्रगट होती है। अंतर्मुहूर्त बाहर आये, अंतर्मुहूर्तमें अन्दर जाते हैं। ऐसी जिनकी दशा है, ऐसे मुनिराजको ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- ... हमारा कुछ कल्याण हो।

समाधानः- मार्ग तो एक ही है, आत्माकी रुचि बढानी, ज्ञायकको पहचानना। आत्मा पर-द्रव्य पर दृष्टि करनी, भेदज्ञान करना, वही करनेका मार्ग एक ही है। श्रीमदने भी वही कहा है और गुरुदेवने वह कहा है। मार्ग तो एक (ही है)-आत्माको (पहचानना)। विभाव अपना स्वभाव नहीं है, (उससे) भिन्न पडना वह है।

मुमुक्षुः- वह बढाने जाते हैं, वहाँ बाह्य औदयिक भाव और बाह्य व्यवहारमें अटक जाना होता है। मुमुक्षुकी कैसी भूमिका होनी चाहिये?

समाधानः- उसका रस स्वयंको अन्दर पडा है। चैतन्यकी ओरका रस बढाना चाहिये। बाहरके रस फिके पड जाये। अंतरका रस बढाना चाहिये, रुचि बढानी चाहिये। अन्दर उसे खटक रहनी चाहिये कि मुझे आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मामें ही सर्वस्व है, बाहर कहीं नहीं है। आत्मा ही सर्वस्व अनुपम पदार्थ है और अदभूत पदार्थ है, उसकी महिमा आनी चाहिये। बाहरमें उसे रस आये, (वह) रस फिके पड जाये तो स्वयंकी ओर झुके।

शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र और अंतरमें मेरा शुद्धात्मा मुझे कैसे पहचानमें आये? ऐसी रुचि अन्दर बारंबार (होनी चाहिये), बारंबार खटक रहनी चाहिये कि करना अन्दर है, बाहर जाना वह चैतन्यका स्वरूप नहीं है। मुझे चैतन्य कैसे पहचाननेमें आये? ऐसी रुचि अन्दर (होकर) बारंबार दृढता करनी चाहिये। एकत्वबुद्धि तो अनादिकी हो रही