Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 468 of 1906

 

३५
ट्रेक- ७६

करनी, तो देशनालब्धि हो ही गयी है, ऐसा मान लेना। स्वयं जिज्ञासा तैयार करे और गुरुदेवने जो कहा कि मैं ज्ञायक हूँ, मैं आत्मा हूँ, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। अन्दर ऐसी दृढ प्रतीत करके भेदज्ञानकी धारा प्रगट करके स्वयं पुरुषार्थ करे तो समझ लेना कि देशनालब्धि हो गयी है।

जो अप्रगट है, उसे कहाँ खोजने जाना? उसका संतोष मानना,... अप्रगटको खोजना उसके बजाय जो प्रगट हो सकता है उसे प्रगट करना। पहले हमने सुना है, देशनालब्धि हुयी होगी कि नहीं? अब प्रगट होगी कि नहीं? ऐसा विचार करनेके बदले स्वयं ज्ञायककी प्रतीति दृढ करनी। जिज्ञासा, लगनी लगानी। ज्ञायककी प्रतीति दृढ करनी। भेदज्ञानकी धारा, द्रव्य पर दृष्टि, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ दृष्टि सब तैयारी करनेका स्वयं प्रयत्न करना। सब पात्रता तैयार करनी। पुरुषार्थ करे तो फिर कोई रोकता नहीं। स्वयं पुरुषार्थ करे तो उसमें कोई रोकनेवाला नहीं है। स्वयं स्वतंत्र है, उसे जितनी भी तैयारी करनी हो (उसमें)। तैयारी करे तो समझ लेना, तैयारी हो जाय तो मान लेना कि देशनालब्धि हो गयी है। हुयी है या नहीं हुयी है, ऐसे अप्रगटको खोजने जानेके बावजूद स्वयं अन्दरसे तैयारी करनी।

भगवानकी वाणीका धोध बरसता हो, उनकी वाणीके निमित्तसे अनेक जीवोंको सम्यग्दर्शन होता था, अनेक जीव मुनिदशा अंगीकार करते, अनेक जीवोंको केवलज्ञान होता था, सब होता था। पुरुषार्थ स्वयं करे तो (होता है)।

वैसे ही गुरुदेवका धोध बरसता था, उसमें देशनालब्धि न हो ऐसा नहीं बनता। बहुत जीवोंको होती है। जिसकी पात्रता हो (उसे होती है)। उनकी वाणीका धोध बरसता था। उसे खोजने जाय और संतुष्ट होना, इसके बजाय स्वयं तैयारी वर्तमान पुरुषार्थ करके करे। ... वैसे गुरुदेवकी वाणी ऐसी थी कि अनेक जीवोंको रुचि तैयार हो जाये, स्वरूप सन्मुख हो जाये, ऐसी गुरुदेवकी वाणी थी। यह तो पंचमकाल है, इसलिये मुनिदशा और आगे बढना बहुत दुर्लभ है। लेकिन गुरुदेवकी वाणीका धोध ऐसा था कि सबको रुचि प्रगट हो, अन्दरसे मार्ग प्राप्त हो जाये, हो सके ऐसा था। स्वयं अन्दरसे तैयारी करके, स्वयं अन्दरसे ज्ञायककी प्रतीति दृढ करे, अपने हाथकी बात है।

... वह सब तो होता है। स्वयं पुरुषार्थ करे, पात्रता तैयार करे, वह सब अपने हाथकी बात है। गुरुदेवने कहा है वही कहना है। स्वयं अंतरमेंसे जो गुरुदेवने कहा है वह करना है। इसलिये स्वयंको पात्रता तैयार करनी है। उसका कारण स्वयंकी क्षति है, स्वयंका प्रमाद है। कोई रोकता नहीं है। स्वयं बाहर अटका है, अपनी रुचिकी क्षति है। स्वयंको उतनी लगनी नहीं लगी है कि मुझे आत्माका करना ही है। मुझे भवका अभाव कैसे हो? मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? ज्ञायक कैसे समझमें आये?