८४ होवे, पूर्ण वीतराग हो जाये तो पूर्ण जानता है।
अपनेको जानो। ज्ञान जानता है, नहीं जानता है... ज्ञानका तो जाननेका स्वभाव है। परके साथ एकत्व मत करो और परके साथ राग मत करो। उससे भेदज्ञान करो। परन्तु जाननेका बन्द करो, उसका कोई मतलब नहीं है। जाननेमें दोष नहीं है, रागका दोष है। एकत्वबुद्धि है। अपने ज्ञायकको पहचानो, ज्ञानकी ओर दृष्टि करो, ज्ञायककी प्रतीत करो, ज्ञायकमें लीन होओ। स्वानुभूतिके समयमें उपयोग बाहर नहीं है तो स्वको जानता है। परन्तु जाननेका छूट नहीं गया है। उपयोग पलट गया है। बन्द करनेका उसमें कोई प्रयोजन नहीं आता। राग छोडना है और भेदज्ञान करो। एकत्वबुद्धि तोडो, स्वको ग्रहण करो।
कहते हैं न, बाहर देखनेका बन्द करो, ऐसा करो। ऐसी कोई हठ करता है। सुननेका बन्द करो, आँखमें कोई ऐसा करता है, मुँह बन्द कर देता है। ऐसा करनेका कोई प्रयोजन नहीं है। अपनेको पहचानो। एकत्वबुद्धि तोड दो। ज्ञान और ज्ञेय दोनों भिन्न ही है। ज्ञायक और ज्ञेय दोनों भिन्न ही है, यह भेदज्ञान करो। द्रव्य जो चैतन्यद्रव्य है, उस पर दृष्टि करना। उसमें भेद गौण हो जाता है। विभाव और भेद भाव, गुणभेद, पर्यायभेद गौण हो जाते हैं। द्रव्यके विषयमें एक द्रव्य आता है। गुणभेद, पर्यायभेद गौण जाते हैं। सब ज्ञानमें आता है। आत्मामें अनन्त गुण हैं, पर्याय है। द्रव्यकी दृष्टिमें एक द्रव्य, अभेद द्रव्य आता है। द्रव्यकी दृष्टि एक आत्माका अस्तित्व ग्रहण (करती है)। ज्ञानगुण है, दर्शनगुण है, चारित्र है, ऐसे गुणभेद पर दृष्टि नहीं रहती। उसमें राग होता है। द्रव्य पर (दृष्टि रहती है)। ज्ञायक द्रव्य है, उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। एक द्रव्य पर दृष्टि करनी।
मुमुक्षुः- वास्तवमें द्रव्यदृष्टिका विषय शुद्धाशुद्ध पर्यायसे रहित नहीं है, परन्तु प्रयोजनवश गौण करके कहनेमें आता है?
समाधानः- गुणभेद, पर्यायभेद उसमें गौण हो जाते हैं। स्वभाव निकल नहीं जाता। द्रव्यमेंसे गुण निकल नहीं जाते, पर्याय निकल नहीं जाती। परन्तु दृष्टिका विषय एक द्रव्य पर होता है। इसलिये आत्मामें गुण नहीं है, पर्याय नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। दृष्टिका विषय एक द्रव्य पर जाता है। अभेद द्रव्य पर। भेद पर उसकी दृष्टि नहीं जाती। दृष्टिके साथ ज्ञान रहता है, वह सब विवेक करता है। दृष्टिके साथ-साथमें रहता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों साथमें रहते हैं। ज्ञान अभेदको जाने, भेदको जाने, सबको जानता है। दृष्टि एक द्रव्यको ग्रहण (करती है)। दृष्टिका बल है। दृष्टिका बल मुख्य रहता है। ज्ञान साथमें रहता है।
मुमुक्षुः- परिणाम बिना तो द्रव्य कभी होता नहीं है, फिर भी उसको अपरिणामी