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मुमुक्षुः- .. गणधरदेवने बारह अंगकी रचना की और फिर उस परसे शास्त्ररचना की।
समाधानः- अंतरमें रचना करते हैं। शास्त्रकी रचना, उस वक्त तो हाथसे लिखना इतना नहीं था। अंतरमेंसे सब ग्रहण करते थे।
मुमुक्षुः- भगवानके पास जानेकी बहुत इच्छा है।
समाधानः- इच्छा हो वह कोई... अन्दरकी भावना कोई अलग होती है। भगवानके पास जानेकी इच्छा हो। अन्दर जिसे भगवान पर भाव हो, उसे जानेकी इच्छा तो होती है। परन्तु ऐसी इच्छासे थोडे ही न जा सकते हैं। अंतरकी भावना हो, ऐसा योग हो तो जा सकते हैं। ऐसी ही थोडे जा सकते हैं।
... कोई शब्दोंमें, कोई लिखावटमें आये। अलग प्रकारका। वह तो ज्ञान ऐसा है। अभी तो कहाँ दिखाई देता है। एक गुरुदेवकी वाणी यहाँ थी कि जिसमें अतिशयतायुक्त वाणी उनकी दिखाई देती थी।
मुमुक्षुः- आगमकी रचना करे उसमें विभिन्न अर्थमें घटित कर सकते हैं। किसीको वाणीका योग उस प्रकारका नहीं हो, कोई शास्त्रकी रचना भी करे। अंतरसे स्वयं शास्त्र रचना करते हैं?
समाधानः- ऐसा कुछ शास्त्रमें नहीं आता है। मनसे आवृत्ति कर ले, उपदेशमें बोले। बारह अंगकी रचना लिखी नहीं जाती। उसमें मूल सूत्र होते हैं। लिखी नहीं जाती। बादमें लिपिबद्ध किया है। लिपिबद्ध .. पहलेका क्षयोपशम कुछ अलग था। मूल प्रयोजनभूत लिखा जाता है। सब लिखावट शास्त्रोंमें होती है, उसका सार लिखनेमें आता है। मूल तो अंतर आधारित है न।
मुमुक्षुः- ... क्षयोपशम कैसे होता है?
समाधानः- क्षयोपशमका प्रयोजन नहीं है, आत्माको ग्रहण करनेका प्रयोजन है। ज्यादा क्षयोपशम हो तो अधिक लाभ होता है। ज्यादा क्षयोपशम हो तो ही मोक्ष होता है और तो ही मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है, ऐसा नहीं है। क्षयोपशमकी इच्छा करनेके बजाय, मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? मुझे भेदज्ञान कैसे हो? थोडा क्षयोपशम हो तो भी भेदज्ञान हो सकता है, स्वानुभूति हो सकती है। सबका क्षयोपशम एक समान नहीं होता। मुनि होते हैं, सबका क्षयोपशम समान नहीं होता। क्षयोपशम तो उसकी अमुक प्रकारकी योग्यता होती है तो क्षयोपशम होता है। बाकी क्षयोपशमकी इच्छासे (क्षयोपशम नहीं होता)। क्षयोपशमकी इच्छा लाभकर्ता नहीं है। अन्दर आत्माको पहचानना। प्रयोजनभूत आत्माको जाने तो उसमें सब आ जाता है। ज्यादा शास्त्रोंको जाने, ज्यादा (शास्त्रका) रटन करे, पढे तो उसे आत्माकी पहचान होती है, ऐसा कुछ