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न हो, तबतक बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र, उसके निमित्त.. वह उसके महानिमित्त हैं। प्रबल
निमित्त हैं, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है। अंतरमें स्वयं ज्ञायककी श्रद्धा करे,
उसका ज्ञान करे, उसकी महिमा करे और विभावसे भिन्न होकर, न्यारा होकर पहचाने
तो पहचान सके ऐसा है।
यह सब आकुलता लक्षण है वह मैं नहीं हूँ, मैं तो अनाकुल लक्षण ज्ञायक हूँ। उसका भेदज्ञान करके अंतरसे भिन्न पडे तो वह पहचाना जाय ऐसा है। भेदज्ञान करके ज्ञाताधाराकी उग्रता करे, क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, यह मैं नहीं हूँ, ऐसे अंतरमेंसे भिन्न पडे तो सिद्ध भगवान जैसी उसे स्वानुभूति होती है और सिद्ध भगवान जैसा अंश उसे प्रगट होता है। स्वानुभूतिकी दशा कोई अद्भुत है।
वह गृहस्थाश्रममें हो तो भी कर सकता है। फिर वह आगे बढे तो मुनिदशा आती है। विकल्पजाल क्षणमात्र नहीं टिकती। विकल्प छूटकर शान्त चित्त होकर अमृतको पीवे ऐसी अपूर्व स्वानुभूति होती है। लेकिन वह स्वयं पुरुषार्थ करे तो होता है, स्वयं करे तो होता है। स्वयंको लगे तो होता है, स्वयं लगनी लगाये तो होता है। बाहरसे नहीं हो सकता है, परन्तु अंतरसे ही हो सकता है। उसका ज्ञान, उसकी प्रतीत दृढ करे। यह ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, ऐसा नक्की करके फिर स्वयं आगे बढे, उसमें लगनी लगाये, लीनता करे, उसमें एकाग्रता करे तो विभावसे भिन्न होकर उसे कोई अपूर्व आत्माकी प्राप्ति होती है। इसके सिवा कोई उपाय नहीं है।
गुरुदेवने यह बताया है, करना यही है। जो मोक्ष पधारे वे सब भेदविज्ञानसे ही गये हैं, जो नहीं गये हैं वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं गये हैं। इसलिये भेदविज्ञान, द्रव्य पर दृष्टि, उसका ज्ञान और लीनता, यह उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। परन्तु मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ, ऐसा नक्की करके मैं कोई अपूर्व आत्मा हूँ, ऐसे ज्ञायक पर दृष्टि करके, प्रतीत करके दृढता करे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। गुरुदेवने बताया, सबको एक ही करना है। ध्येय एक ही-आत्मा कैसे पहचानमें आये? उसकी एककी लगनी लगे तो हो सके ऐसा है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।
बोलो, प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! भगवती मातनी अमृत मंगल वाणीनो जय हो! गुरुदेवना परम प्रभावनो जय हो! सम्यक जयंती महोत्सवनो जय हो!!