१४४ है, उसकी जाति है। उसमें सहज गुण, पर्याय परिणमते हैं। उसमें ज्ञान, दर्शन सहज परिणमते हैं। उसमें कोई विकल्प काम नहीं आता, उसकी कल्पना काम नहीं आती। कल्पनासे अतीत है।
मुमुक्षुः- इसमें तर्कसे कुछ पकडमें आये ऐसा नहीं है।
समाधानः- पृथ्वी खण्ड-खण्ड हो, ऐसी कल्पना करके वहाँ सिद्धान्त बिठाना चाहे तो बैठे नहीं।
मुमुक्षुः- विकल्पमें जैसा विचार करे, वैसा वहाँका विचार करते हैं।
समाधानः- वैसा विचार, वैसा जानना, ऐसे कल्पना करने बैठे तो वह समझमें नहीं आता।
मुमुक्षुः- ध्येय सही होगा तो सब पहलू अपनेआप बैठ जायेंगे।
समाधानः- हाँ, ध्येय सही होना चाहिये। यथार्थ ध्येय हो तो सब सही होता है। उसकी अपूर्व आनन्दकी स्थिति, अनुपम आनन्दको सविकल्पके साथ निर्विकल्प जोडे तो ऐसी भी मेल नहीं बैठता। विकल्पसहितकी स्थिति, निर्विकल्प सहितकी स्थिति, वह सब मनसे, वचनसे सब अगोचर है।
एक यथार्थ ज्ञायकको ग्रहण करे तो उसमें सब आ जाता है। एक ज्ञायकके सिवा मुझे कुछ नहीं चाहिये। यह राग, विकल्प या यह सब आकुलता है, उससे मैं भिन्न हूँ। अन्दर भिन्नताकी श्रद्धा कर, एक ज्ञायकको ग्रहण करे तो उसमें सब उसे आ जाता है। यथार्थ ध्येय होगा तो सब यथार्थ होगा। सूक्ष्ममें सूक्ष्म जो भाव हैं, शुभाशुभ भाव मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसे यथार्थ नक्की करके आगे बढे तो उसमें यथार्थता आयेगी। अन्दरसे यथार्थ नक्की होना चाहिये।
... उनका है? कमाका क्षय करना.... जो मोक्ष पधारे, इस मार्गसे पधारे हैं। वर्तमान.. वह सब आया न? भूत, वर्तमान... इसी मार्गसे मोक्ष पधारे हैं। ऐसे ही निवृत्त हुए...
द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है, पर्याय कोई भिन्न नहीं है। गुजराती समझमें आता है? नहीं समझमें आता है?
मुमुक्षुः- पहली बार आये हैं, माताजी!
समाधानः- द्रव्य है, उसकी द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्य पर्यायको पहुँचता है। द्रव्य परिणमन करके पर्याय प्रगट होती है। और पर्याय द्रव्यको पहुँचती है। पर्याय प्रगट होती है वह द्रव्यके आश्रयसे प्रगट होती है। द्रव्य परिणमन करके पर्याय प्रगट होती है और पर्याय द्रव्यके आश्रयसे होती है। इसलिये द्रव्य, गुण, पर्याय अभेद है। कोई भिन्न-भिन्न टूकडे नहीं है। उसका वस्तुभेद नहीं है। लक्षणभेद है। वस्तु तो एक ज्ञायक एक ही