१९८ भेदज्ञान होकर एकत्व परिणति छूटे तब होता है। उसके पहले वह विकल्पसे करे तो उसमें श्रद्धा और चारित्रकी एकत्व परिणति है। इसलिये उसे श्रद्धा एवं चारित्र दोनों साथ-साथ चलते हैं।
इसलिये उसे मुख्यपने तत्त्वकी बातमें शंका पडे तो वह श्रद्धाका दोष है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र और तत्त्व, तत्त्वमें उसे फेरफार हो, वह श्रद्धाका दोष है। और दूसरे कषाय हैं, वह अस्थिरताके हैं। वह तत्त्वको लागू नहीं पडते। तो भी मुमुक्षुकी भूमिका तो ऐसी होनी चाहिये कि यह अस्थिरता है और यह कषाय लौकिक है, इसलिये वह कैसे भी हो, उसमें कोई दिक्कत नहीं है, उसमें श्रद्धाका दोष कहाँ है? ऐसे नहीं। मुमुक्षुकी भूमिकामें उसके योग्य अमुक प्रकारकी कषायोंकी मन्दता तो उसे होनी चाहिये। लौकिकमें भी उसकी पात्रतामें होना चाहिये। यह तो चारित्रका दोष है, यह तत्त्वको कहाँ लागू पडता है? ऐसा उसे नहीं होता। उसकी पात्रतामें भी अमुक प्रकारकी मन्दता उसे होती है।
मुमुक्षुः- एक-एक स्पष्टकीरण माताजी! आपसे प्राप्त होते हैं तो सब पहलू इतने स्पष्ट हो जाते हैं कि किसी नयकी हानि नहीं होती और फिर भी जितना स्पष्टीकरण जिस प्रकारसे आना चाहिये, वह सब स्पष्टीकरण आपसे प्राप्त हो जाता है।
अस्तित्व ग्रहण करना है कि यह मैं हूँ। बस, इतना तुझे करना है। उसमें गुणभेद या पर्यायभेद, जिस प्रकारसे ज्ञान सम्यकज्ञानमें जानता है वैसा ही वस्तुका स्वरूप है। मात्र तुझे उन सबमेंसे प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एकको ग्रहण कर लेना है।
समाधानः- एक अस्तित्व ग्रहण करना है और दृष्टिके विषयमें एक चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। मैं हूँ ज्ञायक, बस। फिर ज्ञान और श्रद्धा दोनों मैत्रिभावसे हैं। यह ऐसा कहे और वह वैसा कहे, ऐसा नहीं है। एक आश्रय ग्रहण कर लिया, बस, उसमें दृष्टिमें गुणभेद, पर्यायभेद गौण हो गये। विभाव स्वभाव अपना नहीं है। यह शरीर तो जड है, विभावस्वभाव अपना नहीं है। और गुणभेद, पर्यायभेद आदि किस प्रकारसे उसके भेद है, वह सब ज्ञानमें आता है। दृष्टि अपना अस्तित्व ग्रहण करती है। अस्तित्व ग्रहण करती है, उसमें गुणभेद पर्यायभेद सब गौण हो गया। एक अस्तित्वका जोर है और मुख्य है।
उसे सहज नहीं है, इसलिये विकल्पमें ऐसा आता है कि अस्तित्वमें गुणभेद, पर्यायभेद नहीं है, ज्ञानमें है। उसे ऐसे विकल्प आते रहते हैं इसलिये दोनों विरूद्ध जैसा लगता है। उसमें सहज हो... एक अस्तित्व ग्रहण कर लिया। उसमें गुणभेद, पर्यायभेद सब ज्ञानमें ज्ञात होते हैं। फिर उसकी दृष्टिके विषयमें वह सब गौण हो जाता है। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। सामान्य अस्तित्व ग्रहण कर लेता है।