Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 632 of 1906

 

ट्रेक-
१०१
१९९

मुमुक्षुः- ज्ञानगुण और ज्ञानकी पर्याय अपना कार्य करती रहती है, श्रद्धागुणका कार्य अस्तित्वको ग्रहण करना इतना ही है। सम्यक अथवा मिथ्या।

समाधानः- अस्तित्व ग्रहण करती है। एक सामान्य पर जोरसे श्रद्धा रखे कि यह मैं हूँ, यही मैं हूँ, अन्य कुछ नहीं। मुख्य स्वरूप मेरा यह है। मैं चैतन्यरूप ज्ञायकरूप हूँ। यह सब विभाव या भेद आदि सब मेरे मूल स्वभावमें नहीं है। वह सब लक्षणभेदसे भले ही हो, परन्तु मूल स्वभावमें (नहीं है)। वह उसका जोर है-श्रद्धा एवं अस्तित्वका। उसने अस्तित्व ग्रहण किया है। उसका दृष्टिका विषय ऐसा जोरसे है। उसे श्रद्धा कहो, दृष्टिका विषय कहो।

ज्ञानमें वह आता है कि एक अस्तित्व होनेके बावजूद, वह चैतन्य किस स्वरूप है? उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, वह सब ज्ञानमें आता है। लेकिन वह सब टूकडेरूप नहीं है। वह सब ज्ञानमें आता है। दोनों मैत्रिभावसे रहते हैं। इस अपेक्षासे है और दूसरी अपेक्षासे नहीं है। ज्ञानमें दोनों (आते हैं)। ज्ञान दृष्टिको, अस्तित्वको ग्रहण करता है और बाकी सब भी ग्रहण करता है। ज्ञानमें सब आता है।

मुमुक्षुः- श्रद्धाका कार्य क्या? कि श्रद्धा किसीका स्वीकार नहीं करती, ज्ञान जैसा है वैसा...

समाधानः- ज्ञान जैसा है वैसा जानता है।

मुमुक्षुः- अस्तिसे श्रद्धा मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा स्वीकार करती है। साथ-साथ ज्ञान नास्तिमें, यह मैं नहीं हूँ, ऐसा जान लेता है।

समाधानः- यह मैं हूँ, यह नहीं, दोनों। ज्ञानमें सब आता है। किस अपेक्षासे है, किस अपेक्षासे नहीं है। सामान्य-विशेष सब ज्ञानमें आता है। (ज्ञान) विवेकका कार्य करता है, श्रद्धा एक पर जोर रखती है कि स्वंयको ग्रहण कर लिया है कि यह मैं हूँ। मूल अस्तित्व, उसका जो असली अस्तित्व है, वह उसने ग्रहण कर लिया है। लेकिन उसे ग्रहण किये बिना मुक्तिका मार्ग होता नहीं। ज्ञानमें सब जाना, लेकिन एक पर जो जोर न आये तो वह आगे नहीं बढ सकता। जोर एक पर आना चाहिये।

इस अपेक्षासे गुणभेद, पर्यायभेद है। यह विभावस्वभाव मेरा नहीं है। किस अपेक्षासे है, ऐसा जाना, लेकिन जोर एक पर-यह मैं हूँ-फिर उसमें यह गुण है, पर्याय है, सब ज्ञानमें जाननेमें आता है। कल कहा न? भगवान कोई दिव्यस्वरूप (है)। भगवानका आश्रय लिया कि मुझे भगवानके दर्शन करने हैं। एक भगवानका अस्तित्व कि यह भगवान हैं, फिर भगवान कैसे हैं, वह सब विस्तार ज्ञानमें होता है। लेकिन आश्रय करनेवाला एक भगवानको ग्रहण करता है। उसमें एक अस्तित्व ग्रहण करता है। वह तो बाहरका है, यह तो अंतरका है।