Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

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... यह गुरु। यह गुरु है। अपने गुरु हैं। बस, एक गुरुको ग्रहण किया फिर उसके विचार (करता है कि) गुरु कैसे हैं? वह तो उसने नक्की कर लिया कि यह गुरु हैं, उनकी अंतरमें दशा कोई अलग है। यह गुरु अलग है। नक्की करके श्रद्धा करी कि यह गुरु। फिर उसमें बार-बार विचार नहीं आते हैं। एक गुरु हैं, ऐसे आश्रय लिया। एक आश्रय ले लिया। किस अपेक्षासे गुरु हैं, वह नक्की कर लिया, फिर श्रद्धा हो गयी कि यह गुरु हैं। फिर ज्ञानमें जानता है कि गुरु कैसे हैं। फिर बार-बार विचार नहीं करता। एक अस्तित्व गुरुका ग्रहण कर लिया है। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण कर लिया।

वैसे ज्ञायकको ग्रहण कर लिया। जो जड नहीं है, परन्तु चैतन्य है। ... सब ज्ञानसे नक्की करनेके बाद श्रद्धा की कि, यह ज्ञायक सो मैं। एक अस्तित्व ग्रहण कर लिया। श्रद्धाका जोर उसी पर रखा। शक्ति अपेक्षासे है, प्रगट तो हुआ नहीं है। फिर ज्ञानमें सब विवेक करके उस ओरका जोर रखकर उसका पुरुषार्थ चालू होता है।

मुमुक्षुः- अस्तित्व ना माताजी?

समाधानः- सामान्य अस्तित्व। अनन्त गुण मण्डित आत्मा, उसका सामान्य अस्तित्व। गुण पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक सामान्य पर है। पर्यायोंका वेदन होता है। पर्यायें पलटती हैं। वह सब ज्ञानमें जानता है। जो स्थिर हो, उसीका आश्रय लिया जाता है। जो पलटता रहे उसका आश्रय नहीं होता, जो स्थिर होता है उसका आश्रय लिया जाता है। पर्यायें पलटती रहती हैं, उस पर दृष्टि (नहीं करते), उसका आश्रय नहीं लिया जाता, जो स्थिर हो उसका आश्रय लिया जाता है। पर्यायें पलटती हैं। जो गुण हो, उसका कार्य आये बिना रहता ही नहीं। पलटनेका स्वभाव भी है आत्माका।

मुमुक्षुः- दृष्टिका इतना जोर आनेके बाद उसका अभ्यास होता है। प्रत्येक प्रसंगमें मैं तो भिन्न हूँ, मैं तो भिन्न हूँ, यह जो आपने बताया, वह दृष्टिका जोर आनेके बाद उसका बारंबार अभ्यास करना?

समाधानः- बारंबार अभ्यास करना। मैं तो भिन्न ही हूँ। यह शरीर सो मैं नहीं हूँ। मैं तो एक ज्ञायक ही हूँ। यह विभावरूप परिणमन हो रहा है, वह भी मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ।

मुमुक्षुः- जिस द्रव्यके आलम्बनसे सम्यग्दर्शन होता है, उस द्रव्य सम्बन्धित... द्रव्य तीनों कालमें जात्यांतर नहीं होता।

समाधानः- तीनों कालमें जात्यांतर (अर्थात) उसकी जाति बदलती नहीं। जो द्रव्यके आश्रयसे सम्यग्दर्शन हो, वह द्रव्य.. ऐसा है न? द्रव्य जात्यांतर नहीं होता। जात्यांतर यानी उसकी जाति बदलती नहीं। एक स्वभाव ही रहता है। अनन्त काल गया तो भी जीव तो वही का वही है। निगोदमें गया तो भी वह है, देवमें गया तो भी