वैसा ही है। नर्कमें गया तो भी वैसा है, तिर्यंचमें गया तो भी वैसा है। जीव तो वही का वही है। जात्यांतर नहीं होता। जीव बदलकर जड नहीं होता। जीव तो जीव, चेतन तो चेतन ही रहता है। चेतन सो चेतन तीनों कालमें, जड वह जडरूप है। दोनों भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। उस चैतन्यको ग्रहण करना, वही आत्माको सुखका कारण है, अन्य कुछ भी सुखका कारण नहीं है। वह स्वभाव ग्रहण करना, वही सर्वस्व है। वही द्रव्य है। कोई अलग द्रव्य है, आश्चर्यकारी द्रव्य है।
मुमुक्षुः- अशुद्ध परिणमन जो होता है, उसे जात्यांतर हुआ कहा जाय?
समाधानः- किसका परिणमन?
मुमुक्षुः- अशुद्ध परिणमन।
समाधानः- जात्यांतर नहीं है। अपना स्वभाव छोडकर उसका परिणमन होता ही नहीं। स्वयं स्वयंरूप ही रहता है। जात्यांतर अर्थात विभावरूप जो होता है, वह पर्याय अपेक्षासे दूसरी जाति है। परन्तु अपने स्वभावसे मूल वस्तुको नहीं छोडता। निमित्तकी अपेक्षासे कहा जाता है कि स्फटिक स्वयं निर्मल है, परन्तु जो लाल-पीले रंग है वह दूसरी जातिके हैं। वह उसका मूल स्वभाव नहीं है। स्वभावका रंग नहीं है। परन्तु वह विभाव पर्याय-विकृत है। चैतन्यकी विभावपर्याय है, स्वभावपर्याय नहीं है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन तो विकृति रहित द्रव्य है।
समाधानः- सम्यग्दर्शन विकृति रहित द्रव्य है, जो एक स्वभावरूप है, सहज स्वभावस्वरूप है, पारिणामिकरूप है। उसके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। पर्यायके आश्रयसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। द्रव्यके आश्रयसे ही होता है। किसी भी प्रकारका विभाव- विकृति हो, उसके आश्रयसे सम्यग्दर्शन नहीं होता या शुभभावके आश्रयसे नहीं होता। अन्दर शुद्धके आश्रयसे सम्यग्दर्शन होता है। तो वह शुद्धात्माके आश्रयसे होता है। शुद्ध पर्यायके आश्रयसे भी नहीं होता। शुद्ध पर्याय तो प्रगट होती है। वह हमेशा नहीं होती। शुद्धात्माके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। कोई शुभभावके आश्रयसे या शुद्ध पर्यायके आश्रयसे स्वयं शुद्धात्मा द्रव्य है, उसके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। उसीका आलम्बन लेना, उसीमें स्थिर होना, उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसका चारित्र, बस, उसके आश्रयसे ही पूरा मुक्तिका मार्ग यहाँसे शुरू होता है। द्रव्यके आश्रयसे।
द्रव्यको जीवने ग्रहण नहीं किया है। पर्यायकी ओर दृष्टि की है, विभावकी ओर दृष्टि करके शुभभाव कुछ करे तो, मैंने मानो बहुत किया, ऐसा उसे लगता है। परन्तु करनेका अंतरमें बाकी रह जाता है। अनन्त कालसे जो किया वह कुछ किया ही नहीं है। अंतरमें जो करनेका है वह अलग ही है। बाहरसे करे इसलिये मानों मैंने बहुत किया। परन्तु श्रद्धा तो ऐसी ही होनी चाहिये कि मेरे चैतन्यके आश्रयसे ही सब