२०२ होता है।
मुमुक्षुः- शुद्ध द्रव्यके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है, ऐसा कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, द्रव्यके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। दोनों एक ही वस्तु है। पर्यायको गौण करके।
समाधानः- पर्यायको गौण करे तो आत्माके आश्रयसे ही होता है।
मुमुक्षुः- वह शुद्ध ही रहा।
समाधानः- वह शुद्ध ही है। उसमें कोई अशुद्धता है ही नहीं। शुद्धात्माके आश्रयसे ही होता है। शुद्धात्मा और अशुद्धात्मा, वह तो एक बोलनेकी पद्धति है। अशुद्धात्मा पर्याय अपेक्षासे कहनेमें आता है। आत्मा तो शुद्ध ही है।
मुमुक्षुः- यह जो .. बात की, कि पर परिणामरूप परिणमे नहीं, उसका अर्थ क्या?
समाधानः- पररूप परिणमता नहीं। पर परिणामरूप यानी जडरूप परिणमता नहीं। जो आत्मा है, वह विभावरूप मूल रूपसे परिणमता नहीं। पर्याय अपेक्षासे परिणत है।
मुमुक्षुः- द्रव्य स्वभाव है, वह वैसाका वैसा रहता है।
समाधानः- वह वैसाका वैसा रहता है। स्फटिक वैसा ही रहता है, पानीकी शीतलता जाती नहीं। जो वस्तुका मूल स्वभाव हो, वह वैसा ही रहता है। वह निगोदमें जाय तो भी वैसा ही रहता है। उसमें कोई फेरफार नहीं होता। उसीका आश्रय लेना। उसीसे होता है।
अपना कल्याण करना, अपनी शुद्ध पर्याय प्रगट करनी है। वह अन्य किसीके आश्रयसे होता नहीं। स्वयंको अन्दर वेदन और शुद्धता-निर्मलता प्रगट करनी है तो निर्मलके आश्रयसे निर्मल होता है। स्वयं ही है और स्वयंको ही ग्रहण करना है। दूसरा कुछ नहीं है।
मुमुक्षुः- .. स्वपनेका त्याग कर सकता नहीं। वह बात तो आ गयी...
समाधानः- हाँ, द्रव्य स्वपनेका त्याग कर सकता नहीं। द्रव्य स्वयं स्वयंको छोडता नहीं। स्वयंको छोडकर अन्य रूप नहीं होता। अपना स्वपना छोडता नहीं। वस्तु स्वभावसे छोडता नहीं। पर्याय अपेक्षासे छोडता है, ऐसा कहनेमें आता है। वस्तु स्वभावसे छोडता नहीं।
ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, स्वानुभूति प्रगट हो तो उसे ज्ञायककी दशामें वह ज्ञाताकी धारा छोडता नहीं। उसे चाहे जैसी विभाव पर्याय उदयमें हो, तो भी वह ज्ञायककी धारा छोडता नहीं। उसकी भेदज्ञानकी धारा गृहस्थाश्रममें हो तो ऐसे ही चालू रहती है। पर्याय अपेक्षासे छोडता नहीं। पहले कहा वह द्रव्य अपेक्षासे छोडता नहीं। उसकी पुरुषार्थकी धारा ऐसी होती है। बाहर विभावमें एकत्वबुद्धिरूप परिणमता नहीं। उसकी