स्वभावकी धारा चालू ही रहती है। प्रतिक्षण चालू रहती है।
मुमुक्षुः- अनादि मर्यादारूप वर्तता है, ऐसा एक बोल है।
समाधानः- अनादि मर्यादारूप ही वर्तता है, नियमरूपसे उसकी मर्यादा छोडता नहीं। उसकी मर्यादासे बाहर जाता नहीं। जैसे समुद्र अपनी मर्यादा छोडता नहीं, वैसे आत्मा मर्यादा छोडता नहीं। समुद्रका पानी बाहर नहीं आ जाता।
वैसे चैतन्य अनन्त गुणसे भरा आत्मा, वह अपनी मर्यादा छोडकर अपना द्रव्य बाहर आकर दूसरेके साथ मिश्र हो जाय, ऐसा होता नहीं। उसके गुण और उसकी परिणति अन्य किसीके साथ मिश्र हो जाय, उस प्रकारसे वह उछलकर अन्यमें मिश्र नहीं हो जाता। उसका तल ऐसा नहीं है, समुद्र मर्यादा छोडता नहीं, वैसे चैतन्य (अपनी मर्यादा छोडता नहीं)। यह तो दृष्टान्त है। स्वयं मर्यादा (छोडता नहीं)। स्वयं स्वयंमें ही रहता है। पर्याय अपेक्षासे बाहर गया, ऐसा कहनेमें आता है। मर्यादा छोडता नहीं है, ऐसी श्रद्धा करके उस रूप पुरुषार्थ करे तो वह बराबर है।
मुमुक्षुः- तो उसे काममें आये।
समाधानः- हाँ, तो उसे वह समझ काममें आये। बाकी श्रद्धा करे, भले बुद्धिसे श्रद्धा करे तो भी वह हितका कारण है।
मुमुक्षुः- पहले तो ज्ञानमें यथार्थता हो, उसके बाद ही ... होता है न? समाधानः- ज्ञानमें यथार्थ हो। विचारसे नक्की करे तो श्रद्धा होती है। विचार तो बीचमें आये बिना नहीं रहते। तत्त्वके विचारसे श्रद्धा होती है, परन्तु श्रद्धा मुक्तिके मार्गमें मुख्य है। श्रद्धा सम्यक होती है, इसलिये ज्ञान सम्यक कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञान बीचमेें आये बिना नहीं रहता। ज्ञानसे नक्की करता है। व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता।