कारण होता है। उसमें इस पंचमकालमें जहाँ-तहाँ जीव भूल खाता है। इसलिये प्रयोजनभूत तत्त्व जाने उसमें भूल खाता है। उसमें चारों ओरका जाने तो लाभका कारण होता है। जीव किसे कहते हैं? अजीव किसे कहते हैं? आस्रव किसे कहते हैं? संवर किसे कहते हैं? सब समझे तो लाभका कारण होता है। निर्जरा किसे कहते हैं? बन्ध, मोक्ष आदि सब जाने तो लाभका कारण होता है। वह सब प्रयोजनभूत है। छः द्रव्य, नव तत्त्व। द्रव्य-गुण-पर्याय अन्यके अन्यमें, मेरे मुझमें। मैं भिन्न हूँ। परद्रव्य मुझे कुछ नहीं कर सकता। मैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता। मैं मेरे चैतन्यद्रव्यकी परिणति करूँ। दूसरेकी कर नहीं सकता। सब द्रव्य स्वतंत्र हैं। वह सब प्रयोजनभूत है।
मुमुक्षुः- मुक्तिका मार्ग समझाया, फिर भी गुरुदेवकी गैरमौजूदगीमें यह सब तकरार दिखती है, उसमें मुमुक्षुओंको बहुत दुःख होता है।
समाधानः- कारण तो सबका स्वतंत्र कारण है। इस पंचम कालमें सबके अभिप्राय भिन्न हो गये हैं। सबके अभिप्राय अलग हो गये हैं, इसलिये होता है। सबके अभिप्राय अलग हो गये हैं। तत्त्व तो गुरुदेवने चारों पहलूसे समझाया है। सबके अभिप्राय अलग हो गये है। इसलिये होता है।
मुमुक्षुः- सत्पुरुषकी आज्ञामें चलनेका कोई विचारता नहीं है, उसमेंसे यह सब होता है। एक आज्ञामें चलना हो तो इसमें कहाँ तकरार हो ऐसा है। सत्पुरुषकी आज्ञा जैसा कुछ होना चाहिये कि नहीं होना चाहिये। किसीको किसीकी सुननी नहीं है। सब कहते हैं मैं होशियार हूँ, वह कहता है, मैं होशियार हूँ। ...
समाधानः- गुरुदेव विराजते थे तो कोई बोल नहीं सकता था। मनमें हो तो भी कुछ नहीं कर सकते थे।
मुमुक्षुः- समाजमें दूसरे जीवोंको रुचि होती हो और ऐसा माहोल सुने तो बाहरसे उसे ऐसा लगे कि यह क्या है? आनेका मन हो तो अटक जाय।
समाधानः- क्या हो सकता है? उसका कोई उपाय है क्या? उसका कोई उपाय नहीं है। गुरुदेवके प्रतापसे... इस पंचमकालमें गुरुदेव जैसे महापुरुष पधारे, वह महाभाग्यकी बात है। सबको ऐसा तत्त्व समझाया। फिर ऐसे मतभेद हो जाय, वह सबकी योग्यताका कारण है। उसमें क्या हो सकता है?
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी आज्ञाका विचार भी नहीं करते हो, ऐसी परिस्थिति है।
समाधानः- गुरुदेवका क्या अभिप्राय था, उसका विचार नहीं करता। गुरुदेवने क्या कहा है, उसका विचार नहीं करता और स्वयंको दिमागमें जैसा लगे, जहाँ अपनी रुचि है, जो स्वयंको ठीक लगे वह करता रहता है।
मुमुक्षुः- योग्य-अयोग्यका कोई विचार नहीं है।