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समाधानः- पहले श्रद्धान करना। पहले श्रद्धान मुक्तिका मार्ग है। चारित्र बादमें आता है। सच्चा श्रद्धा करे तो चारित्र होता है। श्रद्धान बिना चारित्र कैसे हो सकता है? सच्चा चारित्र नहीं होता। समझे बिना चलने लगे तो मार्गको समझे बिना कहाँ जायगा? भावनगर जाना है तो ऊलटा चलेगा, समझे बिना। श्रद्धान हो कि यह भावनगरका मार्ग है। उस मार्गका श्रद्धान करना। मैं ज्ञायक हूँ, मेरेमें सबकुछ भरा है। उसका भेदज्ञान करके विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, उसकी श्रद्धा करके यथार्थ भीतरमेंसे उसमें लीनता करे। विशेष लीनता करनेके लिये चारित्र होता है।
मुमुक्षुः- खाली चारित्रका पालन करनेसे कुछ नहीं होता?
समाधानः- अकेले चारित्रका पालन करनेसे कुछ नहीं होता। शुभभाव होता है, पुण्यबन्ध होता है, देवलोकमें जाता है। ग्रैवेयक उपजाया।
मुमुक्षुः- निगोदमें आयेगा यदि सम्यग्दृष्टि नहीं हुआ तो?
समाधानः- हाँ, सम्यग्दृष्टि नहीं हुआ तो निगोदमें भी जायगा। तो निगोदमें भी जायगा। परिभ्रमण नहीं टूटेगा। मुनिव्रत धार अनंत बैर ग्रैवेयक उपजायो। मुनिव्रत धारण करके अनन्त बार ग्रैवेयक गया, वहाँ भवभ्रमण टूटा ही नहीं। सम्यग्दर्शन करनेसे भवभ्रमण टूट जायगा।
मुमुक्षुः- इसका क्या प्रमाण है कि हमारे मनुष्यके भव पूरे ही हो चूक हैं या अभी कुछ बाकी रह गये हैं? आगेके भवोंके लिये क्या पता है कि मनुष्यभव है या नहीं है?
समाधानः- अपना परिणाम देख लेना कि मैं कैसे परिणाम करता हूँ? आगे क्या? जैसे परिणाम होवे ऐसा फल मिलता है। कैसा परिणाम भीतरमें होता है? परिणाममें कलुषितता और बहुत बाहरकी लुब्धता, रुचि होवे तो मैं... जैसा उसका परिणाम, वैसा उसका भव। मेरे परिणाम कैसे होते हैं, यह देख लेना। मैं अंतरमेंसे कितना भिन्न रहता हूँ? मुझे आत्माकी कितनी रुचि है? यह सब देख लेना। परिणाममें अत्यंत एकत्वबुद्धि है तो जैसा परिणाम (वैसा) उसका फल।
भव मिलनेसे क्या होता है? भीतरमें आत्माकी रुचि करनेसे भवका अभाव होता है। भव तो देवका भव अनन्त बार मिला और मनुष्यका भव भी अनन्त बार मिला। सबकुछ मिल चुका है। शुभभाव करनेसे पुण्यबन्ध होवे तो देवलोक होता है, मनुष्यभव होता है शुभभावसे, परन्तु भवका अभाव तो नहीं हुआ। भवका अभाव कैसे हो, वैसा करना चाहिये।
मुमुक्षुः- भवका अभाव करनेके लिये अनुभूति प्राप्त करनी है।
समाधानः- अनुभूति प्राप्त करे तो भवका अभाव होता है।