२३० करे, विचार करे। यथार्थ समझे, सत्संग करे। सत्संगमें जाय और उसका स्पष्टीकरण (करे), निःशंकतासे उसकी प्रतीत करे तब होवे। बिना समझे नहीं हो सकता है। उसे समझना चाहिये। प्रयोजनभूत तत्त्व समझे। ज्यादा जाने, ज्यादा शास्त्र अभ्यास करे इसलिये नहीं, परन्तु मूल प्रयोजनभूत तो जानना चाहिये।
मुमुक्षुः- थोडा-बहुत व्यापार है, उनसे भी लगाव छोडना पडेगा न?
समाधानः- उससे रस टूट जाना चाहिये। रस और रुचि छूट जाना चाहिये। उसकी मर्यादा हो जाय। उसकी तृष्णा, अधिक संचय करुँ ऐसी तृष्णा टूट जाय। अधिक तृष्णा आदि नहीं रहते।
मुमुक्षुः- वह कब टूटेगी? जब अन्दरसे भाव..?
समाधानः- अन्दरमें रुचि होवे तब, आत्माकी रुचि होवे तब हो सकता है।
मुमुक्षुः- आत्मामें लगानेका प्रयत्न करने पर भी वह लग नहीं पाता है। करने पर भी .... आता है।
समाधानः- लगन यथार्थ नहीं लगी है। लगन लगे तो हो सके। यथार्थ सच्ची लगन लगे तो भीतरमें तो आत्मा पहचाननेमें आये बिना रहता ही नहीं।
मुमुक्षुः- हम समझते तो यह हैं कि हमने बहुतकुछ कर लिया है, बहुत लगन लगा ली है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।
समाधानः- भीतरमेंसे सच्ची लगन नहीं लगी है, ऊपर-ऊपरसे लगती है। ऐसे ऊपरसे लगती है।
मुमुक्षुः- भीतरमेंसे लगानेके लिये बहिनश्री! थोडा-बहुत तो लगाव छोडना ही पडेगा न?
समाधानः- भीतरमेंसे ऐसे रुचि (लगे कि) बाहरमें सुख नहीं है। मेरा सुखका भण्डार मेरे आत्मामें है। बाहरमें कुछ सुख नहीं है। ऐसा विश्वास आ जाय तो आपोआप छूट जाता है। ऐसे भीतरमेंसे (लगना चाहिये)।
मुमुक्षुः- दर्शनका श्रद्धान होनेके बाद चारित्रका श्रद्धान करना पडेगा या अपनेआप हो जायगा?
समाधानः- सम्यग्दर्शन जिसको होता है, सच्ची प्रतीत, निर्विकल्प स्वानुभूति ऐसा सम्यग्दर्शन होवे। फिर स्वरूपमें लीनता तो अपने पुरुषार्थसे करनी पडती है। आपोआप नहीं होती, पुरुषार्थसे होती है। सम्यग्दर्शन होवे उसके भवका अभाव हो जाता है। बादमें केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये, आत्माकी पूर्ण स्वानुभूति पूर्ण स्वरूपमें रहना, निर्विकल्प स्वरूपमें बारंबार जाना, उसके लिये उसकी लीनता लगानी पडती है।
मुमुक्षुः- चारित्रका पालन करना जरूरी है अभी या श्रद्धान पक्का करना जरूरी है?