समाधानः- .. उसको पहचानना। दो तत्त्व भिन्न हैं। एक मुक्तिका मार्ग है। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि है। वह आत्माको पहचानता नहीं है। आत्माको पीछानना और शरीर, विभाव आदिसे भेदज्ञान करना। मुक्तिका यह एक ही मार्ग है। मैं आत्मा जाननेवाला ज्ञायक हूँ। अनन्त गुणसे भरपूर हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसे भेदज्ञान करना, यह एक ही मुक्तिका मार्ग है।
मुमुक्षुः- क्षण-क्षण ऐसा चिंतवन होता रहना चाहिये? बहिनश्री!
समाधानः- चिंतवन तो क्षण-क्षणमें तब होवे कि जब यथार्थ लक्षण उसके ख्यालमें आवे तब। उसकी जिज्ञासा करे, उसकी लगन लगाये। मेरे आत्मामें सब सुख भरपूर है। मैं आत्मा महिमावंत हूँ। ऐसी भावना, जिज्ञासा, लगन लगावे। भीतरसे पहचाना जाय। विकल्पसे रटनमात्रसे नहीं। भीतरसे विचारना चाहिये। क्षण-क्षणमें मैं आत्मा ही हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा भीतरमेंसे जानना चाहिये। यथार्थ तो तभी होता है। भीतरमेंसे सहजपने भेदज्ञान हो जाय। भीतरमें स्वानुभूति हो जावे। विकल्प छूट जाय और स्वानुभूति होवे तब यथार्थ होता है। पहले तो उसकी जिज्ञासा, लगन आदि होता है।
मुमुक्षुः- व्यापार, कुटुम्बमें रहते हुए भी...?
समाधानः- यह हो सकता है। व्यापार, कुटुम्ब सबमें (रहते हुए भी) भीतरमेंसे उसकी रुचि उठ जाय। उसका रस टूट जाय। बाहरसे त्याग नहीं होता है तो भी भीतरमेेंसे रुचि उठ जाय। उसका रस उठ जाय। उसकी महिमा आत्मामें लग जाय, आत्माकी लगन लग जाय। गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। आत्माका भेदज्ञान होवे। पहले कालमें, चतुर्थ कालमें चक्रवर्तीको भी भेदज्ञान होता है। क्षण-क्षणमें आत्माको मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी सहज उसकी परिणति रहती नथी। चतुर्थ कालमें गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। बाहरसे त्याग नहीं होता, परन्तु भीतरमें आत्माकी स्वानुभूति, भेदज्ञान सब होता था।
मुमुक्षुः- वह कैसे करे?
समाधानः- आत्माकी लगन लगाये, तब होवे। विचार करना। मेरे द्रव्य-गुण- पर्याय क्या है? विभाव परद्रव्य क्या? मेरे द्रव्य-गुण-पर्याय क्या? ऐसे शास्त्रका स्वाध्याय