२२८ हो जाते हैं। निर्विकल्प दशा हो जाती है।
मुमुक्षुः- यह तो भावलिंगीको, और द्रव्यलिंगीको?
मुमुक्षुः- मिथ्यादृष्टि होवे तो कुछ नहीं।
मुमुक्षुः- और सम्यग्दृष्टि होवे तो?
समाधानः- सम्यग्दृष्टिको क्षण-क्षणमें (निर्विकल्पता नहीं होती)। मुनिको तो क्षण- क्षणमें होती है। ऐसी दशा है। क्षण-क्षणमें मुनिको स्वानुभूति होती है। सम्यग्दृष्टिको कोई बार होती है, कोई-कोई बार सम्यग्दृष्टिको होती है। ये तो क्षण-क्षणमें चलते-चलते, खाते-पीते, निद्रा थोडी लेते हैं, फिर निद्रामें जागे तो स्वानुभूतिमें। क्षणमें स्वानुभूति (होती है)। ऐसी मुनिकी दशा होती है।
यह (बाहरकी) तो शुभभावकी क्रिया है। अशुभभाव छोडकर त्याग ले लिया। त्याग लेकर ऐसे पच्चखाण ले लिया कि ऐसे आहार लेना। वह शुभभावकी क्रिया है। लेकिन भीतरकी दशा कोई कुछ अलग है। वह तो शुभभावकी क्रिया है। जैसे कोई उपवास कर लेते हैं, कोई त्याग करता है। वैसे मुनिकी क्रिया धारण कर ले। हाथमें आहार लिया, त्याग कर दिया कि मैं ऐसे आहार नहीं लूँगा, ऐसे आहार लूँगा। वह सब तो बाहरकी क्रिया है। क्रिया है, इसलिये भीतरमें दशा हो गयी ऐसा तो नहीं है।
(गृहस्थाश्रममें) भी सम्यग्दर्शन तो होता है। चक्रवर्तीको भी होता है। .. वह तो कोई अजब होती है। ऐसे मुनि नहीं हो सकते।