Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-

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पहचाने तब होता है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ, यह सब मेरा स्वरूप नहीं है। शुभाशुभ भावसे मैं भिन्न हूँ। यह शरीर जडतत्त्व है, मैं जाननेवाला आत्मा हूँ। यह कैसे समझमें आवे? उसकी जिज्ञासा, उसकी रुचि सब होना चाहिये। अशुभभावसे बचनेके लिये शुभभाव सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आती है, परन्तु मुझे शुद्धात्मा कैसे ख्यालमें आवे? मैं शुद्धात्माका स्वरूप कैसे पीछानुँ? ऐसी प्रतीत, ऐसा ज्ञान (करना)।

सम्यग्दर्शन आत्मामें होता है, सम्यग्ज्ञान आत्मामें होता है, सम्यकचारित्र आत्मामें होता है। सब आत्मामें होता है। बाहरसे कुछ नहीं होता, सब आत्मामें होता है। साथमें शुभभावका व्यवहार होता है। पंच महाव्रत, अणुव्रत सब शुभभाव होते हैं। भीतरमें चारित्र तो स्वरूपमें स्वानुभूति होवे तब चारित्र होता है। सम्यग्दर्शन, स्वरूपकी श्रद्धा, ज्ञान सब आत्माके आश्रयमें होता है। उसकी रुचि, जिज्ञासा, भावना सब करना। उसकी रुचि, तत्त्वका विचार आदि सब करना। ऐसे भवका अभाव हो सकता है। फिर बाहर क्या करना, नहीं करना, वह सब समझमें आ जायेगा। पहले भवका अभाव कैसे हो, उसकी लगनी लगानी। तत्त्वका विचार करना। यह सब तो बाहरका है। प्रणाम, नहीं प्रणाम सब बाहरका है।

मुमुक्षुः- .. समझमें आ जायगा तो यह अपनेआप ..

समाधानः- आ जायगा, सब आ जायगा। उसको विचार करना चाहिये।

मुमुक्षुः- ... वह तो सोचना चाहिये न।

समाधानः- .. तो विचार करना चाहिये। ऐसा पढनेमें आया, मोक्षमार्ग प्रकाशकमें सब आता है। गुरुदेवने बहुत समझाया है। सबका विचार करके नक्की करना।

मुमुक्षुः- द्रव्यलिंगी जैसे मिथ्यादृष्टि होता है, बहिनश्री! तो सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है क्या?

समाधानः- सम्यग्दृष्टि हो सकता है, लेकिन वर्तमानमें ऐसा नहीं है। द्रव्यलिंगी सम्यग्दृष्टि होते हैं।

मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगके साथमें होता नहीं है..

समाधानः- .. सब क्रिया करते हैं बाहरकी।

मुमुक्षुः- छठ्ठे-सातवें गुणस्थानवाले मुनिराज भी हाथमें ही लेते हैं?

समाधानः- हाथमें लेते हैं। भीतरकी दशा कोई उसकी अद्भुत रहती है। दशा अद्भुत रहती है। मुनि तो हाथमें आहार लेते हैं। बाहर हाथमें आहार लिया इसलिये भीतरमें ऐसी दशा हो गयी, ऐसा नहीं होता। वह तो कोई अजब होते हैं, भावलिंगी मुनि तो। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें शरीर कहाँ है? आत्मा कहाँ है? भीतरमें चले जाते हैं, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें। चलते-चलते भी भीतरमें चले जाते हैं। आहार लेते-लेते निर्विकल्प