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समाधानः- भाव था, पहलेसे भाव था।
मुमुक्षुः- बहुत भक्ति। गुरुदेवश्री और बहिनश्रीको देखे तो अन्दरसे ऐसा हो जाता था, हाथ-पैस सीधे नहीं थे इसलिये ऐसा कुछ कर नहीं सकते थे।
समाधानः- उनको जो रुचि थी वह रुचि सबको रखने जैसा है। आत्माका स्वरूप कैसे समझमें आये, उसकी जिज्ञासा, लगन। आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। वह अनुपम तत्त्व है। यह विभाव स्वभाव अपना नहीं है। आत्मा भिन्न है, उसका भेदज्ञान कैसे हो, उसकी जिज्ञासा, लगन जबतक नहीं हो तब उसकी रुचि और शुभभावोंमें जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र, उनकी महिमा शास्त्रका चिंतवन, शास्त्रका स्वाध्याय, जीवनमें वह सब शुभभावमें (होना चाहिये)। और शुद्धात्मामें आत्माकी रुचि रखने जैसा है। जीवनमें वह कर्तव्य है। जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। उन्होंने जो रुचि (की), उन्होंने जो किया वह सबको करने जैसा है। आत्माकी रुचि, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा आदि।
... पंचमकालमें पधारे वह तो कोई अपूर्व तीर्थंकरका द्रव्य, उनकी तो बात क्या! ऐसे महापुरुषका अवतार यहाँ कहाँ? पंचमकालमें कहाँसे?
मुमुक्षुः- ... मैंने महाराज साहबको कहीं देखा है।
समाधानः- वहाँ ऊपर ही रहती थी न। तब मन्दिर जाना कुछ था नहीं, इसलिये बाहर भी बहुत नहीं निकलती थी। मन्दिर नहीं था।
मुमुक्षुः- मन्दिर दर्शन जानेकी कोई प्रथा शुरू नहीं हुयी थी।
समाधानः- प्रथा शुरू नहीं हुई थी। चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।