समाधानः- एकसाथ ज्ञात होते हैं। निर्विकल्पताके कालमें एकसाथ ज्ञात होते हैं। ध्रुव ध्रुवरूप, पर्याय पर्यायरूप जैसा है वैसा ज्ञात होता है। उसे विकल्प करके क्रम नहीं पडता। सहज ज्ञात होता है। उपयोग है वह सब जानता है। स्वयं द्रव्यको जाने, गुण, पर्याय सब जानता है, उपयोगमें सब ज्ञात होता है। उपयोग बाहर हो तो विकल्पात्मक है, अन्दर है वह निर्विकल्परूप है। उसे सब ज्ञात होता है। दृष्टि एक ध्रुव पर है और उपयोगमें सब ज्ञात होता है।
अनुभूतिको जानता है, ध्रुवको जानता है, सब जानता है। आनन्दको जानता है, सब जानता है। न जाने तो वह ज्ञान कैसा? ज्ञान सब जानता है। ज्ञानका उपयोग स्वकी ओर गया तो स्वको जानता है। स्वपरप्रकाशक ज्ञान है। उस वक्त उपयोग बाहर नहीं है कि उसका पर ओर उपयोग हो। परन्तु स्वके अन्दर ही स्वयं अपने गुण, पर्याय, द्रव्य आदि सबको जानता है।
पर्याय कहीं चली नहीं जाती। पर्यायका परिणमन होता है। ध्रव और पर्याय सब साथमें होता है। वेदन है वह पर्याय है, पर्याय कहीं चली नहीं जाती। और ध्रुव भी है। विकल्पात्मकमें जाना है इसलिये वह सहजरूप हो जाता है। दृष्टिका जोर जैसा था वैसा सहज रह जाता है। ज्ञानका उपयोग जैसा है वैसा सहज जानता है। केवलज्ञानमें सहज शाश्वत वीतरागदशा रह जाती है। छद्मस्थको उपयोग पलट जाता है। वीतराग दशा पूर्ण नहीं हुयी है, इसलिये उपयोग पलट जाता है। उपयोगकी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी है। अंतर्मुहूर्तमें पलट जाता है।
मुमुक्षुः- .. उसमें आपने ऐसा कहा कि अपना नाम जैसे जानता है वैसे? तो आपने कहा, नहीं, वैसे नहीं। परन्तु ... देव-गुरुकी प्रतीति और आश्रयमें क्या फर्क पडता है?
समाधानः- नाम तो उसने मात्र नाम जाना कि इस शरीरका नाम यह है। उसमें नामका आश्रय कहाँ है? वह आश्रयरूप नहीं है। आपने ऐसा कहा था न कि नाम भूल गया। ऐसा कुछ प्रश्न था।
मुमुक्षुः- जैसे अपना नाम रटना नहीं पडता, लेकिन उसे सहजरूपसे आश्रय, निर्विकल्प आश्रय है कि मैं हीराभाई हूँ। इस तरह है कि नहीं? तब आपने कहा था कि नहीं, ऐसे नहीं।
समाधानः- नाम है वह कोई वस्तु नहीं है। उसका आश्रय थोडे ही है। यह तो एक आश्रय है। अन्दर ज्ञायकका आश्रय लिया, वह अलग है। और देव-गुरु- शास्त्रका शुभभावमें भले ही स्वयंने आश्रय लिया है। उसका आश्रय है कि यह गुरु अन्दर साधना करते हैं। आत्मवस्तु बताते हैं। गुरुका आश्रय जो अन्दरमें आया कि