२३८ गुरु जो बताते हैं, उसका ही आश्रय सच्चा है। देव-गुरुका। शुभभावमें (ऐसा होता है कि), इसी आश्रयसे ही मुझे ज्ञायकका आश्रय मिलेगा ऐसा है। निमित्तमें ऐसा और उपादानमें स्वयं है। नाम है वह कोई आश्रय नहीं है। आश्रय तो एक वस्तुका होता है। आश्रय कोई नामका नहीं होता है। नाम सहज रह जाता है, वह अलग बात है। एक शरीरका नाम (है), यह मैं हूँ ऐसे। वह कोई आश्रयरूप वस्तु नहीं है।
मुमुक्षुः- आश्रयकी अपेक्षासे भेद करो तो...
समाधानः- हाँ, वह तो आश्रय लिया है। गुरुका-देवका आश्रय लिया। लेकिन वह भी अभी तो बाह्यका हुआ। अंतरमें खरा आश्रय ज्ञायकका ही है। ज्ञायकका आश्रय लिया कि मैं यह ज्ञायक हूँ। फिर उसे रटना नहीं पडता। उसे सहज आश्रय आ जाता है। स्वयं ही है, अन्य नहीं है। सहज आश्रय रह जाता है। और निर्विकल्प दशामें तो उसे उपयोगात्मक है। वह तो उसे वेदनमें आ गया है। उसमें आश्रय है, इसमें वेदनमें आ गया है। ज्ञायककी परिणति वेदनकी है वह श्रद्धारूप ज्ञायककी परिणतिका वेदन अलग है और वह उपयोगात्मक है। (परिणतिमें) लब्धात्मक है, यह उपयोगात्मक है। लब्धात्मक अर्थात शक्तिरूप नहीं है। ज्ञायककी परिणतिरूप है। परिणतिरूप है तो वह परिणति ऐसी है कि उपयोग बाहर जाय तो भी वह परिमति टिकी रहती है। और अन्दर निर्विकल्प दशा तो उपयोगात्मक हुयी है। परिणति और उपयोग दोनों साथ हो जाते हैं। परिणति है वह परिणति वैसी ही रह जाती है और उपयोगात्मक होता है। परिणति और उपयोग दोनों हो जाते हैं।
सविकल्प दशामें उसकी जो सहज दशा वर्तती है, पुरुषार्थकी धारा, वह साधकदशा उसका कारण होने पर निर्विकल्प दशाका कार्य आता है। बाहरसे छूटकर अंतरमें चला जाता है। इसलिये विशेष कार्य उसे वह होता है।
मुमुक्षुः- निर्विकल्प ...में परिणतिके साथ उपयोग साथ आकर मिलता है, इसलिये उपयोगरूप आनन्द हो जाता है।
समाधानः- एक विशिष्ट परिणति होती है।
मुमुक्षुः- बाह्यमें आपने जो भेद किया, देव-गुरुका आलम्बन-आश्रय और नाममें आश्रय नहीं है। यह पकडमें नहीं आया।
समाधानः- नामका आश्रय कहाँ स्वयंने लिया है? वह तो एक नाम है कि ये हीराभाई, नाम है। नाम ऐसा रह गया, सहज रह गया। नामके साथ कोई प्रयोजन नहीं है।
मुमुक्षुः- यहाँ तो निमित्तरूपसे भी प्रयोजन है।
समाधानः- हाँ, प्रयोजन है। और ज्ञायकके आश्रयमें प्रयोजन है। निमित्तमें देव-