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गुरुका प्रयोजन है। उसमें तो शरीर पर ध्यान है कि ऐसा शरीर है सो मैं हूँ, ऐसा एक अन्दर कल्पनासे मान लिया है।
मुमुक्षुः- घोंटन होते-होते ऐसा दृढ हो गया उतना ही, उसमें आश्रय नहीं है। यहाँ देव-गुरुमें निमित्तरूपसे आश्रय है।
समाधानः- आश्रय है, आश्रय है।
मुमुक्षुः- जाननेके प्रकारमें क्या अंतर है?
समाधानः- मतिज्ञानका उपयोग सामान्य है। इसलिये मतिज्ञान विशेष भेद नहीं करता। सामान्यरूपसे वस्तु (जानता है)। दर्शनउपयोग तो अलग है, वह तो सत्तामात्र ग्रहण करता है। मतिमें विशेष तर्क करके नहीं जानता। मति सामान्यरूपसे द्रव्य-गुण- पर्याय जानता है। और श्रुत है वह विशेष-विशेष जानता है।
मुमुक्षुः- सामान्य जानता है उसमें द्रव्य-गुण-पर्याय सब आ जाता है? मतिमें?
समाधानः- सब आ जाता है, सब आ जाता है। लेकिन वह सामान्य जानता है, विशेष श्रुत जानता है। प्रत्यभिज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। अवाय, इहा होता है उसमें मतिज्ञान है। वह सब मतिज्ञानका उपयोग सामान्य है और श्रुतज्ञानमें विशेषता होती है। इसलिये उसे अनुभूतिमें भी सामान्यतया वस्तुको गुण एवं पर्याय सामान्यरूपसे (जानता है)। परन्तु उसको विशेष गहराईसे जाने तो श्रुतज्ञान जानता है। लेकिन उसमें ऐसा कोई भेद नहीं है। विकल्प छूट गये हैं। मति और श्रुत दोनों साथमें काम कर रहे हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञानके साथ मतिज्ञान.. अनुभूतिके कालमें?
समाधानः- मतिपूर्वक श्रुतज्ञान है। लेकिन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों साथमें है। मतिपूर्वक। मतिका उपयोग होनेके बाद श्रुतका होता है। लेकिन वह सब अबुद्धिपूर्वक होता है। अंतर्मुहूर्तमें मति होता है, बादमें श्रुत होता है, ऐसा उसका क्रम पडता है। लेकिन वह उसे बुद्धिमें नहीं है, विकल्पमें नहीं है। ... पलटता है, वह अबुद्धिपूर्वक है।
मुमुक्षुः- .. विकल्प कौनसे होते हैं?
समाधानः- वह कोई निश्चित नहीं है। उस सम्बन्धित होते हैं। द्रव्यको ग्रहण किया है, द्रव्य ओरके, गुण ओरके, पर्याय ओरके वह सब उस सम्बन्धित विकल्प होते हैं। लेकिन कौनसे विकल्प होते हैं, वह निश्चित नहीं है। द्रव्यका आश्रय लिया, द्रव्य ओरके विकल्प हैं, गुण-पर्याय सब प्रकारके विकल्प होते है। लेकिन वह तो विकल्प छूटनेका काल है। इसलिये विकल्पसे नहीं होता है। विकल्प छूटकर (स्वानुभव) होता है।