Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

२८४ रूप परिणमता है और ज्ञानी भी क्रोधरूप परिणमते हैं, तो उन दोनोंमें क्या फर्क है?

समाधानः- अज्ञानी परिणमता है, उसे एकत्वबुद्धि है। उसे आत्मा भिन्न ज्ञात नहीं होता है और एकत्वबुद्धि (है)। क्रोधरूप, मैं क्रोधरूप हो गया, मानरूप हो गया, मायारूप हो गया, ऐसे एकत्वबुद्धिमें परिणमता है।

ज्ञानीकी ज्ञानदशा होनेके कारण वह भिन्न रहता है कि यह क्रोध मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो भिन्न ज्ञायक हूँ। मेरा स्वरूप, मैं तो क्षमास्वरूप ज्ञायक हूँ। परन्तु यह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे यह जो क्रोधका उदय आया है, उस क्रोधमें जुडना हो जाता है। क्रोध मेरा स्वरूप नहीं है। इसलिये उसकी जुडनेमें अमुक मर्यादा (होती है), उसके रसमें मर्यादा होती है। उसकी क्रिया पर नहीं, उसके रसमें मर्यादा होती है। उसके क्रोधमें उसका रस अन्दरसे मन्द होता है।

और (अज्ञानीको) एकत्वबुद्धिका रस होता है। एकत्व है इसलिये उसका रस नहीं छूटता। वह भिन्न रहकर जुडता है, ज्ञानी है वह। उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। कोई भी कार्यमें जुडे भिन्न रहता है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे यह जो उदय आते हैं उसमें जुड जाता हूँ। परन्तु यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा उसके ज्ञानमें ऐसा ही वर्तता है। उसे ज्ञायककी धारा चलती है।

मुमुक्षुः- ज्ञान और रागका भेदज्ञान तो है, वैसे यह पुदगलका राग और यह मेरा राग, ऐसा भेदज्ञान है?

समाधानः- पुदगलका राग और मेरा राग यानी पुदगलका निमित्त है। पुदगलके (निमित्तसे) चैतन्यमें परिणति (होती है)। पुदगल पर उसका ध्यान नहीं है। यह राग मेरा स्वरूप नहीं है। यह राग अन्यके निमित्तसे होता है। उसे बार-बार यह पुदगल और यह जीव ऐसा नहीं (करना पडता)। यह जो रागकी परिणति होती है वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह पुदगलके निमित्तसे होती है। यानी सिर्फ जड है ऐसा भी नहीं है। वह तो मेरी परिणतिमें होता है, मैं जुड जाता हूँ। जड मुझे नहीं कहता है कि तू जुड जा। रागकी परिणतिरूप स्वयं जुड जाता है, परन्तु यह मेरा स्वरूप नहीं है, उससे भिन्न हूँ। मेरा द्रव्य, मेरा स्वभाव भिन्न है। इसलिये वह मुझसे भिन्न है। मेरा स्वभाव भिन्न है इसलिये भिन्न है, परन्तु मेरी परिणति उस रूप होती है, मैं उससे भिन्न हूँ। मेरी पर्याय वर्तमान ऐसी होती है, परन्तु मैं मेरे स्वरूपमें रहता हूँ, मैं भिन्न हूँ। भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। स्वयं भिन्न रहता है। ऐसी उसकी ज्ञायककी पुरुषार्थकी धारा निरंतर रहती है। साधकको प्रत्येक कार्यमें पुरुषार्थ साथमें होता है। पुरुषार्थ नहीं हो सकता है ऐसा नहीं है। उसका स्वामी नहीं होता। यह मेरा स्वरूप नहीं है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!