Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

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अनेकान्तमय मूर्ति है। स्वानुभूतिमें उसे अनेकान्तमय मूर्ति उसकी स्वानुभूतिमें आती है। लेकिन कितने ही धर्म वचनमें नहीं आते, कितने ही वचनसे अगोचर है कि ज्ञायकको, द्रव्यको दृष्टिमें लिया तो उसके गुणभेद, पर्यायभेद सब ज्ञान जानता है। उसका विरोध मिटाकर साधना साधते हैं। स्वयं द्रव्य पर दृष्टि करके, द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण है, परन्तु पर्यायमें अभी अधुरापन है, उसे ज्ञान जानता है। इसलिये चारित्रकी साधना बाकी रहती है। अतः चारित्रकी साधना बारंबार साधकर अंतरमें लीन होकर, विभावको टालता हुआ स्वरूपको साधतो हुआ आगे बढता है। विरोध मिट जाता है। अनेकान्त ज्ञान ऐसा है कि विरोध मिट जाता है।

भगवानकी वाणी ऐसी स्याद्वाद वाणी कि जो विरोध मिटानेवाली है। ऐसी सरस्वती देवी भगवानकी वाणी, जिससे विरोध मिट जाता है। भगवानकी वाणीमें चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप आता है। यदि वह यथार्थ समझे और अपने स्वभावसे समझे। ज्ञान भी वैसा है और वाणी भी वैसी है। उससे विरोध मिट जाता है। यदि यथार्थ समझे तो।

वह आता है न? भूतार्थ स्वभावको अपने द्रव्यके समीप जाकर देखे तो भूतार्थ है और पर्यायके समीप जाकर देखे तो (अभूतार्थ है)। द्रव्य भूतार्थ और पर्याय अभूतार्थ द्रव्यकी अपेक्षासे। और पर्यायके समीप जाकर देखे तो पर्याय भूतार्थ दिखती है। परन्तु द्रव्यकी अपेक्षासे वह अभूतार्थ है। उसकी अपेक्षाएँ समझे तो विरोध मिट जाताैहै। ऐसा विरोध मिटाकर साधना साध सकता है, यथार्थ समझे तो।

विभाव अपना स्वभाव नहीं है। और यह ज्ञानादि जो हैं, वह अपना स्वभाव है। मात्र उसमें अनेकता और एक, ऐसा विरोध है। परन्तु वह विरोध ऐसा नहीं है कि जहाँ एक हो, वहाँ अनेक रह न सके, ऐसा नहीं है। लक्षणभेद है। लक्षणभेद, पर्यायभेद ऐसा भेद है। दूसरा भेद नहीं है। और एक द्रव्यके अन्दर समा जाता है। द्रव्य स्वयं द्रव्य अपेक्षासे एक और उसमें धर्म अनन्त, गुण अनन्त। वह तो द्रव्यकी एक विभूति है। उसकी पर्यायें अनन्त, वह सब द्रव्यकी विभूति है। द्रव्य ऐसा नहीं होता कि जो विभूति रहित हो। जो गुण रहित द्रव्य हो तो उसे द्रव्य ही नहीं कहते। ऐसी अनन्त विभूतिसे भरपूर भरा हुआ द्रव्य है।

उसे अपने विचारसे नक्की करे, नयसे प्रमाणसे नक्की करे। वह नक्की करता है वही उसकी स्वानुभूतिमें... यद्यपि स्वानुभूति अपूर्व है, परन्तु स्वानुभूतिमें उसे प्रतीत करता है, उस प्रकारकी स्वानुभूतिमें उसका नाश नहीं होता है। अनेकान्तमय मूर्ति स्वयं शाश्वत ही है। उसका विरोध मिटाकर साधना साध सकते हैं।

मुमुक्षुः- सब द्रव्यके ही धर्म है? विरोधी भी द्रव्यका ही धर्म है।

समाधानः- द्रव्यके ही धर्म हैं। एक वस्तुके धर्म हैं। और उसमें रह सकते हैं।