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हो गया। वह साधन बार अनन्त कियो, तदपि कछु हाथ हजु पर्यो। ऐसे साधन अनन्त बार किये, लेकिन अब तक कुछ हाथ नहीं आया। यह सब कर लिया, लेकिन हाथमें कुछ नहीं आया।
अब क्यों न विचारत है मनसे, कछु और रहा उन साधनसे। उसके साधनमें कुछ अलग ही रहा है। यह सब किया तो क्या बाकी रह गया? बिन सदगुरु कोई न भेद लहे, मुख आगल है कह बात कहै। सदगुरुके बिना वह भेद कोई नहीं जान सकता। तेरे पास ही है। परन्तु बाहर दौडता रहता है। बाहर कहीं नहीं है। दोडत दोडत दोडियो, जेथी मननी दोड... जितना भागा उतना तेरे मनकी दौडसे तू बाहर भागा। जेथी मननी रे दोड.. लेकिन कुछ हाथमें नहीं आया।
अंतरमें एक ज्ञायककी दशा प्रगट हो, ज्ञायकको पहचाने, न्यारा हो जाय तो मुक्तिकी दशा प्रगट हो। उसके बजाय बाहरसे इतनी क्रियाकाण्ड की, कितने कष्ट सहन किये, तप किया, उपवास किये, मासखमण किये तो भी अंतरमेंसे कुछ प्रगट नहीं हुआ। वैसा ही रहा। नौंवी ग्रैवेयक तक जाकर वापस आया, वही दशा खडी रही। अंतरमेंसे जो शान्ति आनी चाहिये, अंतरमेंसे जो आनन्द आना चाहिये, वह कुछ नहीं हुआ। करनेका अंतरमें कुछ बाकी रह जाता है। त्याग-वैराग्यकी शक्ति अंतरमें प्रगट होती है। त्याग और वैराग्य बाहरसे बहुत लिया, त्याग किया, वैराग्य किया, परन्तु अंतरमें त्याग- वैराग्यकी शक्ति कोई गजब, अचिंत्य बाकी रह जाती है।
आश्चर्य लगे कि बाहरसे यह सब करता है और अंतरमें न्यारा (रहता है), उसे लेप नहीं लगता है, ऐसा आप कहते हो। और वह मुनि बन जाय, सब छोड दिया, बाहरसे निर्लेप भी दिके तो भी आप उसे बन्धवाला कहते हो। वह लेपमें बैठा है ऐसा कहते हो। ऐसा कैसा?