मन्द होती है तो पुरुषार्थ शुरू नहीं होता। कारण नहीं होता है तो कार्य नहीं आता है। अपना ही कारण है, दूसरा कोई कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- रुचिकी तीव्रता कैसे हो?
समाधानः- सबका एक ही कारण है। करे तो होता है, नहीं करे तो नहीं होता है। कारण अपना ही है। जो बाहरमें अटक जाता है वह नहीं अटके और भीतरमें जाये तो होता है। बाहरमें अटकनेसे नहीं होता है। एक ही कारण अपना है, दूसरे किसीका कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- दिनभर विचार तो चलता है, दिनभर भेदज्ञानका विचार चलता है। वह टिकता नहीं है, बाहरमें प्रवृत्तिमें मन जाता है। दूसरेका विचार तो आता है, मन जाता है, उसमें .. कैसे आये?
समाधानः- बाहर तो भीतरमें अनादिका अभ्यास है तो बाहर जाता है। शुभ परिणाममें भी रहता है। परन्तु शुभ भी चैतन्यका मूल स्वभाव नहीं है। शुभ अपना स्वभाव नहीं है। जब भीतरमें शुद्धात्मा नहीं प्रगट होवे, तब तत्त्व विचार, देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा आदि सब होता है। परन्तु ऐसी लगन तो होनी चाहिये कि जो- जो कार्य होवे उसमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ। ऐसी भीतरमेंसे, ऊपर-ऊपरसे नहीं, अंतरमेंसे अपना पुरुषार्थ करना चाहिये।
जैसे स्फटिक निर्मल है, वैसे मैं निर्मल हूँ। ऊपर जो प्रतिबिंब दिखता है वह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो निर्मल हूँ। ऐसा बारंबार, बारंबार, बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। उस रूप जब परिणति होवे तब हो सकता है। अभ्यास करना चाहिये। बाहरका अभ्यास कैसे करता है? बाहरका तो अनादिका अभ्यास है तो ऐसे ही चलता रहता है। उतना अभ्यास भीतरमें करना चाहिये, जरासा करे फिर (छूट जाता है)। रुचिकी क्षति है। रुचि करना, अपना ही कारण है, दूसरा कोई कारण नहीं है।
अकारण पारिणामिक द्रव्यका कोई कारण नहीं है, अपना कारण है। अनादि कालसे परिभ्रमण किया तो अपने कारणसे। और नहीं होता है अपने कारणसे। जो होता है अपने कारणसे होता है। दूसरा कोई करता नहीं। देव-गुरु-शास्त्र निमित्त हैं। उपादान तो अपना है, अपनेको करना पडता है, दूसरा कोई करता नहीं।
मुमुक्षुः- अपना ... क्यों नहीं करना चाहता है?
समाधानः- .. नहीं करना चाहता है, लेकिन ऐसा बोलता रहे या ऐसा रटन करता रहे कि इसमें दुःख है, सुख नहीं है, ऐसा है, वैसा है। पुरुषार्थ नहीं करे तो कैसे होवे? चाहता नहीं है। सुख तो सब इच्छते हैं। बोलनेसे नहीं होता है। कार्य करनेसे होता है।