Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-३)

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मुमुक्षुः- रटन करना पुरुषार्थ नहीं है?

समाधानः- रटन करना पुरुषार्थ नहीं है। कार्य करना पुरुषार्थ है।

मुमुक्षुः- विचारनेका भी मना कर दिया आपने, ... उससे आगे कहाँ जाय?

समाधानः- रटन करनेसे नहीं होता है। भीतरमें अभ्यास करनेसे, स्वभाव पहचाननेसे होता है। किसीको अंतर्मुहूर्तमें होता है, वह अपने पुरुषार्थसे होता है। नहीं होता है वह अपने कारणसे नहीं होता है। परिणति पलटना, मात्र रटन करनेसे नहीं होता है।

शास्त्रमें आता है, मैं बन्धा हूँ, बन्धा हूँ, ऐसे बन्धनका विचार करनेसे बन्धनकी बेडी नहीं टूटती। तोडनेका कार्य करे तो बन्धन टूटे। प्रज्ञाछैनी जब प्रगट होवे तब कार्य होता है। मात्र विचार करे कि मैं बन्धा हूँ, मैं बन्धा हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं ऐसा हूँ, विभाव है, इतना रटन करनेमात्रसे नहीं होता है, कार्य करनेसे होता है।

मुमुक्षुः- कार्य करनेके लिये कैसे तैयार हो?

समाधानः- अपने आप तैयार होना चाहिये, स्वयं। आत्मा स्वतंत्र है। कोई रोकता नहीं है। उसे कोई रोकता नहीं है, अपने कारणसे स्वयं रुका है, पुरुषार्थ करे तो अपने आपसे होता है। किसीका कारण नहीं है। अनादि कालका कितना अभ्यास किया है। इतना सहज हो गया कि विचारना भी नहीं पडता। विभाव तो सहज चलता रहता है। ऐसे स्वभाव ओरका अपना अभ्यास तीव्र करना चाहिये।

मुमुक्षुः- आपने कैसे किया था? आप अपना बता दीजिये, हम तो वैसे ही करेंगे।

समाधानः- भीतरमेंसे इतनी तीव्रता होवे तब होता है। कहीं चैन न पडे। क्षण- क्षणमें रात-दिन उसकी लगन लगनी चाहिये। दिन-रात चैन नहीं पडे। रुकता है तो अपना प्रमाद है। कार्य नहीं करता है तो दरकार नहीं है। मात्र उससे नहीं होता है, कार्य करनेसे होता है।

(तोडनेका कार्य) करे तो बेडी टूटती है। बोलनेसे नहीं टूटती। कहीं चैन नहीं पडे। आश्रय नहीं लगे, अपने आश्रयसे सुख लगे। जब निरालम्बन हो जाय कि परका आलम्बन मुझे सुख नहीं देता है। चैतन्य द्रव्य पर दृष्टि करके, उसका ज्ञान करके, उसकी परिणति तीव्र करे तब होता है। अपने आश्रयको दृढ करे तो। और परसे छूट जाय तब। परका आलम्बन लेनेमें सुख लगता है तो नहीं होता है।

मुमुक्षुः- ऐसा वेदनका जोर आता है वह भी परालम्बन है?

समाधानः- परालम्बन है तो भी सब साथमें आता है। इसलिये परालम्बन है। परिणति ज्ञायक ओर करनी चाहिये। नहीं हुआ है तब तो ऐसा विकल्प बीचमें आता है। जब सहज परिणति नहीं हुयी, जब स्वानुभूति नहीं हुयी, सहज दशा नहीं हुयी तो विकल्प तो बीचमें आता है। परन्तु ज्ञायकका स्वभाव ग्रहण करके, उस ओर दृष्टि