१२२
करके अभ्यास करना चाहिये। ... ऐसा भीतरमेंसे ज्ञायकको ग्रहण करके बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। बीचमें विकल्प तो साथमें रहता है। जबतक निर्विकल्प दशा नहीं हुयी हो तबतक।
उस दिन कहा न? छाछ और मक्खनको बिलोते-बिलोते वह मक्खन भिन्न हो जाता है। ऐसे अभ्यास करनेसे होता है।
मुमुक्षुः- अभ्यासरूप वेदनकी अधिकता हो तो अन्दर परिणति ...?
समाधानः- अभ्यासकी तीव्रता होवे, उस ओर परिणति झुके तब उसकी तीव्रता होवे तो विकल्प टूटे। जब मन्दता रहे तब नहीं टूटती। तीव्रता होवे तब टूटती है। .. कारण अल्प है इसलिये कार्य नहीं होता है। कारण कम है तो कार्य नहीं आता है। कारण अपना पूरा होवे तब कार्य आता है। शिवभूति मुनिको एक क्षणमें हो गया और किसीको देर भी लगती है। पर सबमें कारण अपना ही है, दूसरा कोई कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- .. पकड लेता है। ज्ञायकको पकडना चाहिये। उसमें पढनेकी कोई जरूरत नहीं है। शास्त्रका ज्ञान होवे तो बीचमें ठीक है, यह द्रव्य है, यह गुण है, पर्याय है, जाननेका बीचमें आता है, तो भी वह थोडा जानता है तो भी कर सकता है। आत्माका स्वभाव जाने। यह स्वभाव है, यह विभाव है। इतना जाने तो भी हो सकता है। मूल स्वभावको ग्रहण करे। शिवभूति मुनिने इतना ही ग्रहण किया-यह स्वभाव है, यह विभाव है। यह छिलका है, यह दाल है। यह स्वभाव है, यह विभाव है। इतना मूल प्रयोजनभूत ग्रहण करे तो (भी कार्य हो जाता है)।
ज्ञानके लिये भले पढे-लिखे तो उसमें कोई नुकसान नहीं है। लेकिन उससे हो सकता है ऐसा नहीं है। होता है अपने भीतरके पुरुषार्थसे होता है।
मुमुक्षुः- अन्दरका मार्ग नहीं मिलता?
समाधानः- अंतरका मार्ग नहीं मिलता। मात्र विचार करनेसे (नहीं होता)। विचार बीचमें आता है। जबतक नहीं होवे तबतक तत्त्वका विचार, शास्त्र अभ्यास, देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा सब बीचमें होता है। परन्तु दृष्टि तो एक तत्त्व-ज्ञायकतत्त्व पर रखनी। मैं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ। द्रव्य पर दृष्टि और ज्ञान सबका रखना। यह गुण है, पर्याय है, सबका ज्ञान करना। दृष्टि चैतन्य पर रखनी कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त द्रव्य शुद्धात्मा हूँ। ऐसी दृष्टि करनेसे उसमें शुद्ध पर्याय प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- आपके वचनामृतमें आता है, ७० नंबरका बोल है। जैसे वृक्षका मूल पकडमें आनेसे सब हाथमें आ जाता है। वैसे जिसे, ज्ञायकभाव पकडा, उसे...