Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 769 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-३)

३३६

समाधानः- परिचय तो नहीं है तो विभावका प्रेम है। स्वभाव तो अपना ज्ञानस्वभाव जो असाधारण है वह तो जाननेमें आ सकता है। देव-गुुरु-शास्त्र मार्ग बताते हैं कि यह तेरा ज्ञायक स्वभाव है। उसका परिचय कर, उसका अनुभव कर। वे तो बताते हैं, तो अपना विचार करके स्वभाव ग्रहण करे तो परिचयमें आ सकता है। कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, अपना है। इसलिये वह परिचयमें आ सकता है। उसका परिचय हो सकता है, ज्ञान हो सकता है, सब हो सकता है। अपना तत्त्व है न? कोई दूसरा नहीं है।

उसमें ज्ञान, आनन्द सब है। परिचय न होवे तो भी परिचयमें आ सकता है। आप ही है, दूसरा कोई नहीं है। अपनेको भूल गया है। इसलिये परिचय नहीं है। अपनेको आप भूलके हैरान हो गया। अपनेको भूलके हैरान हो गया। अब परिचय हो सकता है। परिचय दूसरा है तो भी उसको भूलकर अपनेको ग्रहण कर सकता है। वस्तुका स्वभाव है। देव-गुरु-शास्त्र मार्ग बताते हैं, उसका विचार करे। मूल तत्त्व क्या है? वह परिचयमें आ सकता है। नहीं परिचयमें होवे तो भी परिचयमें आ सकता है।

समाधानः- .. अनादिका है। अभ्यास परका हो गया है। अपना अभ्यास करना चाहिये। चैतन्यदेव ज्ञायकतत्त्व अनादिअनन्त शाश्वत हूँ, उसका बारंबार अभ्यास करना। क्योंकि दूसरी सब बात तो परिचयमें आ गयी है, यह ज्ञायक आत्मा परिचयमें नहीं आया है। गुरुदेवने बहुत सुनाया है, कहीं भूल न रहे ऐसा गुरुदेवने स्पष्ट किया है। लेकिन उसे परिणति करके उसका पुरुषार्थ करना स्वयंको बाकी रहता है। वह पुरुषार्थ अंतरमेंसे स्वयं करे। बारंबार उसका अभ्यास करता रहे। अपनेमें दृष्टि, अपनेमें ज्ञान, अपनेमें लीनता, भेदज्ञान करके करे।

एक ज्ञायकतत्त्व और शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र। अनादिअनन्त चैतन्यदेव.. सब अधूरी पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है। आत्मा तो पूर्ण स्वभाव है। पूर्णतासे भरा, उसमें ज्ञान पूर्ण, आनन्द पूर्ण, अनन्त गुण परिपूर्ण है। अनन्त काल गया तो भी उसमें कुछ कम नहीं हुआ है। ऐसा परिपूर्ण भगवान आत्मा है, उसे लक्ष्यमें लेना। मात्र पर्यायके कारण अपनी शक्ति,.. पर्यायमें प्रगटता नहीं है। पर्यायकी प्रगटता कैसे हो, उसके लिये स्वयंको परिणतिको पलटनेकी आवश्यकता है। परिणतिकी दिशा पलटनेकी जरूरत है। दिशा बाहर है उस दिशाको अंतर ओर देखनेकी जरूरत है। आत्माकी ओर। उसीका अभ्यास। यह जो अभ्यास है, उससे भी विशेष अभ्यास आत्माका करनेका है। तो वह प्रगट होता है। ऐसा आत्मा निर्विकल्प तत्त्व अनादिअनन्त स्वंय एक पारिणामिकभाव स्वरूप अनादिअनन्त है, उसे ग्रहण कर। दूसरे सब भाव है (क्षणिक हैं)। यह तो शाश्वत अनादिअनन्त भाव है, उसे ग्रहण कर। उसमें पारिणामिकभाव ज्ञायकभावमें